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________________ २५८ ] अध्याय आठवाँ । आचारको विरोध नहीं है ऐमा हमको दिखता है। दर्शनसे भ्रष्ट हुआ सो भ्रष्ट होता है । चारित्रसे भ्रष्ट हुआ सो पुनः स्थितिकरण हो सकता है इसके वास्ते समयभूषणके श्लोकः मनः शुद्धं भवेद्यस्य स शुद्ध इतिपठ्यते । विना तेन कृतस्नानोप्ययं नैव विशुद्धयति ॥ १ ॥ कार्याकार्यविचारज्ञः सर्वभाषाविशारदः । सर्वसामार्थवित्साधुर्धर्मस्य प्रतिपादकः ॥ २ ॥ सगुणो निर्गुणोवापि श्रावको मन्यते सदा । नावज्ञा क्रियते तस्य तन्मूला धर्मवर्तिना ॥ ३ ॥ येन येन हि कृत्येन धर्मवृद्धिः प्रजायते । तत्तत्कुर्वन् यतिान्यो भवेदत्र न संशयः ॥ ४ ॥ सम्यग्दर्शनशुद्धान। तपसाल्पेन जायते । कर्मक्षयस्ततो नूनं तदेव प्रतिपालयेत् ।। ५ ।। सम्यक्तमूलं सर्वं स्याज्ज्ञानं चारित्रमेव वा । विना तेनापरे नैव कुर्यातां मोक्षसाधनं ॥ ६ ॥ दिगम्बर जैन समाज इस तरह सम्प्रतिके वादविवाद ही में पड़ गई और चिकागो भेजनेका कुछ वीरचंद राघवजीका भी प्रबन्ध नहीं किया। उधर श्वेताम्बरचिकागो गमन। समाजने सब प्रबन्ध करके श्रीयुत वीरचंद राघवजी बी. ए को ता: ४ अगस्त १८९३के दिा जहाज़में बिठाके चिकागो भेज दिया। आत्मारामजी महाराजने एक निबंध हिन्दीमें तयार करके वीरचंदनीको दे दिया कि इसका तर्जुमा करके सभामें सुना देवें । सेठ माणिकचंदजीको बड़ा भारी उत्साह था कि कोई दिग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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