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________________ संयोग और वियोग । । देखकर सं. १९४९ के आषाढ़ मासमें बम्बई आए ख्यान देने व शास्त्र वांचने का अच्छा अभ्यास था । मंदिर में भादों के दिनो में श्री दशलक्षणजी व सुत्रजीके अर्थ आपने बहुत अच्छी तरह से वर्णन किये। उस समय सेठ माणिकचंदजीने खूत्र ध्यान से सुने । माणिकचंदजीको विद्यावृद्धि, सर्व मुल्क में जैन धर्म प्रचार, कुरीतिके नाशका कितना बड़ा ख्याल था सो पाठकोंको उसी पत्रसे निश्चय हो गया होगा जो उन्होंने सेठ हीराचंद - जीको भेजा था व जिसकी नकल इसके पहले अध्यायमें दी गई है पर बम्बई में कोई सहाई न मिलने से माणिकचंदनी कुछ उद्योग न कर सके थे | अब २६ वर्षके नौजवान गोपालदासको अपने ऐसे विचारोके धारी, परोपकारी और तीव्र वृद्धि देखकर इनको बड़ाही हर्ष हुआ । उजीने इनको अपने पास बुलाकर इनसे बहुत प्रेम जताया । रोज इनसे वार्तालाप करने लगे तथा सेठजीकी सहायता से आप जवाहरातका व्यापार करने लगे और सुखसे बम्बई हीमें रहन लगे । [ २४७ इनको व्या बम्बई के जैन सेठ माणिकचंद की इच्छानुसार गोपालदासजी ने अपने उपदेशोंसे बम्बई के भाइयोंको सभाकं अनेक लाभ मुम्बई दि० जैन दिखाए। उस समय लोग सभा होना क्रिष्टान सभाकी स्थापना | पादरियोंकी नकल करना समझते थे । सर्व भाइयोंकी मरजीसे मिती मांगसिर सुदी १४ संवत १९४९ को मुम्बई दि० जैन सभा स्थापित हो गई जिसके मंत्रीका कार्य सेठ माणिकचंदजी और उपमंत्री का पद पंडित गोपालदासजीको दिया गया । यह सभा प्रति सुदी १४ को होती थी जिसमें नाना प्रकार के व्याख्यान होते थे । इस सभा के प्रतापसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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