________________
२ ]
अध्याय पहिला |
आनंदमय होकर निरंतर स्वात्मानुभूति तियाके विलासमें मग्न रह परमामृतका स्वाद लेते हुए परम सुखी रहते हैं। ऐसे महात्माओं को वीर, महावीर, परमविजयी, सिद्ध, परमऐश्वर्य्यधारी, परमप्रभु कहते हैं । आत्मा अपूर्व शक्तियों का भंडार है । इसका लक्षण उपयोग है । ज्ञान क्रियाका स्वामी आत्मा ही है, अन्य कोई भी अनात्मा नहीं । ज्ञान एक गुण है । गुण और गुणका आश्रयी द्रव्य इस जगत में कभी मिटते नहीं, चाहे जितनी उनकी अवस्थायें पलटती चली जावें । निःसन्देह एक अवस्था जरूर मिटनेवाली और अन्य अवस्था होनेवाली है, पर जिसकी दशा पलटती वह अपनी सत्ताको इस जगत में सदा बनाये रखता है । हमको प्रत्यक्ष अनुभव है कि किसीका निश्चयसे नाश नहीं होता । एक उजड़े हुए वृक्षकी शाखायें काटे जानेपर लकड़ी होकर कोयला, राख होती और फिर पानी हवाके साथ इधर उधर बहती हुईं फिरती हैं । वह मसाला, वह द्रव्य, वह चीज़ जो शाखाओं में थी वह इस संसारसे लुप्त न हुई किन्तु एक दूसरी ही हालत में बदल गई, तो भी जो गुण उस शाखा के द्रव्य में थे वे सब उसके उसीमें हैं ।
1
ज्ञान आत्माका मुख्य गुण, हरएकके अनुभव में है । हरएक जानता है कि मैं जानता हूं, मैं देखता हूं, मैं सुनता हूं, मैं काम करता हूं, मैं दुःखी हूं, मैं सुखी हूं। इस ज्ञान गुण और इसके स्वामी आत्माका कभी नाश नहीं । ये दोनों अजर अमर अविनाशी अमिट हैं । इससे आत्मा अपने सर्व गुणोंके साथमें इस
गतसा ही एक न एक पर्यायमें बना रहता है। जब तक शुद्ध नहीं, मुक्त नहीं, निरंजन नहीं तब तक इसको अपने कर्मों के अनुसार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org