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________________ २७८ ] अध्याय छठा । ऐसा कि यह अभी दीक्षा न ले और रानमंदिरमें चले, पर सीताजीको शरीरसे प्रेम न था इसीसे शरीरके सम्बन्धी पतिसे भी प्रेम हट गया था--टनका प्रेम आत्माकी ओर आकर्षित हो गया था इसीसे आत्म कल्याण करना पतिकी क्षणिक सेवासे भी उत्तम समझकर सीताजी बनको ही चलदी थी। इस वर्णनको जब २ स्मृतिमें लाती थीं रूपाबाई पतिकी स्मृतिके दुःखको भूलाती थीं और धर्ममें दिन पर दिन दृढ़ भाव करती जाती थीं। सेठ माणिकचंद बड़े विचारशील व दयालुचित्त थे । युवती रूपाबाईको वैधव्यमें - देखकर इनका चित्त भीतरसे भर आताथा और यही विचार करते थे कि इसे किसी तरहका कष्ट न हो । एक दिन सेठजी अपनी भावनके पास जाकर उसको कहने लगे-माताजी, आप कोई चिन्ता न करें, अब आप मन लगाकर खूब दान पुण्य करें, तीर्थ यात्र करें, व्रत उपवास तप करें, पुत्र प्रेमचंदको पालन करें, आपकी आज्ञा हम सब बरह माननेको तयार हैं, मोतीचंदजी अपने हाथसे कुछ दान नहीं कर गए थे। अब आप इच्छानुसार दान धर्म करें, किसी तरहका संकोच मनमें न लावें । यह सर्व लक्ष्मी आपकी ही है। ____रूपाबाईको इन बचनोंसे बहुत ही सन्तोष हुआ। इसके हाथखर्चको प्रति मास १००) कभी १५०) सेठ माणिकचंद दे दिया करते थे। रूपाबाई घरमें सर्वकी सम्हाल रखती हुई तीनों भाइयोंकी स्त्रियोंको संतोषित करती हुई, अपनेसे किसीको कष्ट न हो इस तरह वर्तन करती हुई और पुत्र प्रेमचंदको बड़ी सुरक्षासे पालती हुई रहने लगी। रात्रिको जलपान लेनेका भी त्याग कर दिया, श्रृंगार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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