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________________ सन्तति लाभ। [ १७७ बंधाया और इसे होनेहार मान संतोष धारण किया पर विधवा रूपाबाईके चित्तको जो क्षोभ व कष्ट हुआ वह उसीके या श्री केवलीभगवानके अनुभव गोचर था। रूपाबाईकी अवस्था इस समय २२ वर्षकी थी--खिलती जवानी थी। अति मनोहरांगी रूपाबाईको एक परम विधवा रुपाबाईके पवित्र धर्मकी श्रद्धा ही ऐसी प्यारी धार्मिक विचार । सखी थी जो इसके मनको थांभती थी, इसके वैधव्यपनेके दु:खको मुलाती थी तथा इसके चित्तमें ज्ञान ज्योति प्रगट कराकर संसारकी क्षणभंगुरताका चित्र खींचती थी, जब पतिस्मरणका बहुत कष्ट होता था और यह अपनी दृष्टि पुत्र प्रेमचंद पर डालती तब यह तुर्त प्रसन्न चित्त हो जाती थी। प्रेमचंदको वारवार निरखकर उसके रूप व गुण इसके मनको शोक रहित करनेमें बहुत सहायता देते थे। यद्यपि रूपाबाईको पति वियोगका क्लेश था परंतु उसको किसीने हाय हाय करते, रोते रहते व छाती कूटते नहीं देखा क्योंकि उसके आत्म विचारमें यह भी निश्चय था कि हरएक जीव अपने २ कर्मोंका फल इस शरीरमें भोगता है, आयु भी एक कर्म है । जब इसकी स्थिति पूरी हो जाती है तब हरएकको शरीर छोड़कर जाना होता है। रूपाबाईने श्री पद्म पुराणको कई दफा सुना था । श्री सीताजीका वह वर्णन इसके मनके सामने छाजाता था कि जब अमिकुंडसे रक्षित होनेपर सीताजी तुर्त आयिकाकी दीक्षाके लिये बनको चली गई थी। रामचंदजीके गृहस्थ अवस्थामें रहते हुए व उनकी अंतरंग इच्छा व प्रेम रहने पर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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