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अध्याय छठा । कारी गल्लेका व्यापार करना पड़ता था। माणिकचंदसे मिलकर इनको यह भी आशा हुई कि कभी कोई लौकिक काम होगा तो इनसे निकल सकेगा। यह सेठ इतना धनाढ्य और पुण्यात्मा होने पर भी गर्व रहित है। हमारे पाठकोंको मालूम होना चाहिये कि यह धर्मचंद वही परोपकारी तीर्थभक्त भाई धर्मचंद मुनीम पालीताना दिगम्बर जैन कारखाना हैं जिनके उद्योगसे उस तीर्थका बहुत ही सुधार हुआ है व जिन्होंने अपने उपदेशसे हजारों यात्रियोंका कल्याण किया है व कर रहे हैं। इनकी अवस्था अब ६४ वर्षकी हैं। अपने प्रणके अनुसार ५ व ७ दिनमें धर्मचंदने वह भजन नकल करके बम्बई भेज दिया।
वह भजन इस भांति है।
( राग जंगलो) मंडलसार त्रीलोक सीरोमणी, पुर अंकलेसर माही हो २
मंडलसार० ॥ टेक ॥ संवत् सत उगनीस तासपरि धरि पैंतीस समाय हो। पंडित राज महेंद्र आवे चोथी शुक्ल चैत्राय हो ॥ १॥ मं० अंकलेश्वरके सर्व पंच बुध राज समीप जु आय हो। बोले उत्सव जिनवरकी प्रभावना करणी चाहि हो ॥ २ ॥ मं० चैत्र शुक्ल पूनिम दिन मंडप आरंभ्यो पुरवांही हो। गज चालीस लंब अति सोभित व्यास वीशगन पायहो ॥ ३ ॥ मं० वदि ग्यारसी रवीवारे मंडल भरणांरंभ कराय हो । सुदि वैशाख तिनी रवीवारै पूंना प्रारंभाय हो ॥ ४ ॥ मं० तादिन श्री जिनचर सुलग्नमैं रथ यात्रा करवाय हो ।
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