________________
युवावस्था और गृहस्थाश्रम । १५१ १९०२का गुजराती पत्र 'सत्यवक्ता' अपने अंक १५ पुस्तक १७में इस भांति कहता है:
" तेओ सं० १९३१मां पवित्र स्थान श्रीकेशरीआजीनी महान् यात्राए गया हता, ते समय त्यां मोटो खर्च करी आवा धर्मने शोभा आपनारां मान्य भरेलां कार्यो करी आव्या हता."
सेठ माणिकचंदजीको विद्या व धर्ममें शुरूसे ही प्रेम था। इसी कारण वहाके दिगम्बर जैनियोंको आपने शास्त्रस्वाध्याय करने व अपने २ बालकोंको विद्या पढ़ाने व धर्मके स्तोत्रादि सिखानेकी प्रेरणा की। केशरियाजीसे लौटकर सुरत होते हुए माणिकचंदनी बम्बई आए । __अब सेठ हीराचंदनी अपना समय धर्मध्यानमें अधिक देने लगे । इनको न तो अब घरके कामकी चिन्ता थी और न व्यापार की। चारों भाई बड़े प्रेमसे इस तरह द्रव्य उपार्जनमें वृद्धि पा रहे थे जिस तरह दुइजका चंद्रमा प्रतिदिन अपनी कलाको बढ़ाता जाता है। सेठ हीराचंदके चित्तमें कभी २ जो ख्याल उठ आता था
वह केवल अपने चतुर्थ पुत्र नवलचंदके सेठ नवलचंदका विवाहका था। नवलचंदकी लग्नके लिये विवाह । हीराचंदके पास प्रतिदिन इधर उधरसे आदमी
आते व पत्र आया करते थे पर सेठ हीराचंदने तो यही ही निश्चय कर रक्खा था कि २२ वर्षकी आयु जब तक नवलचंदकी न होगी तब तक हम उसकी लग्न नहीं करेंगे। • तथा सगाई भी १ वर्षसे अधिक पहिले नहीं करेंगे । दिन जाते देर नहीं लगती है। संवत १९३२के अंतमें इनके पास टेंभुरणी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org