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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क भव्य एवं पुनीत भावनाओं से ही अपनी आत्मा को भावित करता रहता है, उसका कषाय भाव तीव्र नहीं होता। सम्यग्दृष्टि सच्चा मुमुक्षु होता है। वह मुक्ति की इच्छा रखता है और संसार से अपनी आत्मा का निस्तार चाहता है। भोगों में डूबे रहने पर भी उसकी आत्मा भीतर से अलिप्त रहती है। ऊपर से देखने वालों को भले ही समझ में न आवे, मगर ज्ञानी उसकी निर्लेप दशा को जानते हैं। प्रश्न किया जाता है कि सम्यग्दृष्टि जीव यदि मोक्ष की इच्छा करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि मोक्ष प्राप्त करने के लिए इच्छा का नष्ट हो जाना आवश्यक है। इच्छा मोहनीय कर्म के उदय से होती है। जब तक इच्छा है तब तक मोहनीय कर्म का उदय है और जब तक मोहनीय कर्म का उदय है तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता। इस प्रश्न के समाधान में कहना है कि यद्यपि इच्छा मोह का ही एक कार्य है, तथापि मोक्ष की इच्छा प्रशस्त इच्छा है। इस इच्छा से प्रेरित होकर जीव संसार संबंधी विषयभोगों से एवं आरंभ-समारंभ आदि पापमय प्रवृत्ति से निवृत्त होता है। जिस इच्छा के कारण पाप में प्रवृत्ति होती है, वह इच्छा कर्मबंध का कारण है। मगर मोक्ष की इच्छा इससे विपरीत होती है, अतएव उससे कर्मबंध नहीं होता। मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला तप, संयम, प्रत्याख्यान आदि का आचरण करता है। अतएव वह मोक्ष में बाधक नहीं होती। पर मुमुक्षु पुरुष जब उच्च कोटि पर पहुंच जाता है और उसका मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट हो जाता है, तब इच्छा मात्र भी नष्ट हो जाती है। उस समय वह अपने आत्मस्वरूप में ही तन्मय हो जाता है। उस समय उसमें मोक्ष की भी इच्छा नहीं रह जाती। उसी ऊंची स्थिति के प्राप्त होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी अपेक्षा से कहा है _ यस्य मोक्षेऽप्यनाकांक्षा, स मोक्षमधिगच्छति । __अर्थात्-जिसके अन्तःकरण में मोक्ष की भी इच्छा नहीं रह जाती, वही महापुरुष मोक्ष प्राप्त करता है। और मोक्षे भवे च सर्वत्र, निस्पृहः मुनिसत्तमः । अर्थात्-परमोच्च श्रेणी पर पहुंचा हुआ मुनि क्या मोक्ष में और क्या संसार में, सर्वत्र निस्पृह हो जाता है। इन दृष्टियों को सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि कथंचित् मोक्ष की इच्छा मोक्ष में साधक भी है और कथंचित् बाधक भी है। इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेने से ही सर्वत्र सत्य की आराधना होती है। अतएव जैन शासन में किसी भी प्रकार के मिथ्या एकान्त को जगह नहीं है। अनेकान्त दृष्टि को सामने रख कर ही तत्त्व का निष्पक्ष विचार करना उचित है। इसी से सत्य का ज्ञान होता है और इसी से कल्याण होता है। सम्यग्दृष्टि निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा करता हुआ, संसार-व्यवहार से उदासीन-सा बना रहता है। यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि सांसारिक काम करता है, परन्तु उनमें अनुरक्त नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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