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________________ ४० जिनवाणी-विशेषाङ्क मादक तो नहीं रहता, फिर भी कुछ नशा रहता है। इसके समान है मिश्रमोहनीय, जिसमें मिथ्यात्व का कुछ अंश रहता है। जिस कोद्रव में मादकता नहीं रहे, वह नशा नहीं करता। इसके समान है क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। मादक कोद्रव ऐसा भी होता है कि जो पुराना होने पर स्वभाव से ही निर्मद हो जाता है। दूसरे प्रकार के कोद्रव की मादकता प्रयत्न करने पर छूट जाती है, किन्तु ऐसा कोद्रव भी होता है कि जिसकी मादकता छूटती ही नहीं। इसी प्रकार कुछ जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनका मिथ्यात्व, मन्द होता हुआ स्वतः छूट जाता है, स्वभाव से ही। कुछ का उपदेश रूपी प्रयत्न से छूटता है और अभव्य जीवों का मिथ्यात्व तो छूटता ही नहीं, सदैव बना ही रहता है। सम्यक्त्व के मुख्यतः तीन भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । औपशमिक सम्यक्त्व में अनन्तानबन्धी कषायचतुष्क तथा दर्शनत्रिक के दलिक पूर्णरूप से उपशान्त हो जाते हैं-दब जाते हैं, राख के नीचे दबी हुई आग की तरह । उनका प्रदेशोदय भी नहीं होता। क्षायिक सम्यक्त्व तो तभी होता है जब कि वे दलिक समूह नष्ट हो जायें। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में, उदय से आये हुए मिथ्यात्व के कर्मपुद्गल तो क्षय कर दिये जाते हैं और जो उदय में नहीं आकर सत्ता में ही हैं, वे उपशांत हो जाते हैं। उनका प्रदेशोदय मात्र होता है। उपशम और क्षयोपशम समकित में मिथ्यात्व की सत्ता रहती है, जिससे उदय में आने की संभावना बनी रहती है। उपशम-सम्यक्त्व संसार-अवस्थान काल में पांच बार से अधिक नहीं आता, क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व उत्कृष्ट असंख्य बार आ सकता है, किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व तो मात्र एक बार ही आता है और स्थायी-सादि अपर्यवसित रहता है। उपशम और क्षयोपशम समकित वाला तो पुनः मिथ्यात्व प्राप्त कर, कोई उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल-परावर्तन काल तक, अनन्त जन्म-मरण भी कर लेता है, किन्तु क्षायिक-सम्यक्त्वी जीव चार भव से अधिक नहीं करता। वह भी क्षायिक-सम्यक्त्व प्राप्त करने के पूर्व आयुष्य बांध लिया हो तो। यदि पहले आयुष्य नहीं बांधा हो, तो फिर वह आयुष्य का बन्ध नहीं करता और मोक्ष ही प्राप्त करता है। इसकी प्राप्ति एकमात्र मनुष्य-भव में ही होती है। प्राप्ति के बाद क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि चारों गतियों में होती क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का जो अंश उपशान्त रहता है, वह निमित्त मिलने पर उदय होकर सम्यक्त्व को नष्ट कर देता है। क्षयोपशम सम्यक्त्व के पतन के अनेक निमित्त होते हैं। इसलिए प्राप्त सम्यक्त्व की रक्षा करना अत्यंत आवश्यक है। रक्षित सम्यक्त्व अधिक से अधिक १५ भव में मुक्ति दिला ही देता है। सम्यक्त्व-रत्न को लूटने के लिए चारों ओर मिथ्यात्व रूपी लुटेरे लगे हुए हैं। प्रत्यक्ष डाकू दिखाई देने वाले से तो मनुष्य सावधान रहकर बचाव भी कर लेता है। क्योंकि वह पहले से उससे दूर रहता है। किन्तु जो डाकू, साहुकार, हितैषी परोपकारी तथा सेवक का स्वांग सज कर आवे, उससे बचना कठिन है। इस विषय में गुरुदेव से एक बोधक दृष्टान्त सुना था, वह मैं आपको सुना रहा हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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