SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का वमन हो जाने पर भी जीव की ऐसी परिणति बन जाती है कि जिससे वह पुनः बीच में आये हुए मिथ्यात्व को हटा कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। एक बार सम्यक्त्व पा लेने पर अधिक से अधिक देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में तो मुक्ति प्राप्त कर ही लेता है। जीव, मिथ्यात्व दशा में यथाप्रवृत्तिकरण करके सम्यक्त्व के निकट आ सकता है । ऐसी दशा में अभव्य जीव भी आ सकता है, किन्तु वह अपूर्वकरण करके सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता। नदी में रहा हुआ पत्थर, पानी के प्रवाह से परस्पर टकराकर घिस जाता है और गोलमटोल तथा स्निग्ध बन जाता है, जिसे लोग देव-मूर्ति (शालिग्राम) बना कर पूजने लगते हैं। इसी प्रकार अकाम-निर्जरा द्वारा मोहनीयकर्म की साधिक ६९ कोड़ाकोड़ी सागरोपम जितनी दीर्घ स्थिति को भोग कर जीव सम्यक्त्व पाने के योग्य बन जाता है। इसके बाद मिथ्यात्व की गांठ तोड़ने के लिए आत्मा अपूर्वकरण करता है। अपूर्वकरण से जीव अनन्तानुबन्धी कषाय की गांठ को तोड़कर, अनिवृत्तिकरण करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। यथाप्रवृत्तिकरण तो अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि को भी होता है, किन्तु अपूर्वकरण तो सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले भव्य को ही होता है। इससे वह मोहनीयकर्म की दृढ़तम गांठ को तोड़ देता है। यथाप्रवृत्तिकरण तक जीव अनन्त बार आ जाता है, किन्तु अपूर्वकरण को अनादि मिथ्यादृष्टि प्रथम बार ही प्राप्त करता है। यह अपूर्वकरण ही अनन्तानुबन्धी कषाय की, अनादि की दुर्भेद्य गांठ को काट कर आत्मशुद्धि करता है और अनिवृत्तिकरण से मिथ्यात्व मोहनीय का भेदन कर सम्यक्त्व लाभ करता है। यथाप्रवृत्तिकरण आदि के विषय में आचार्यों ने एक दृष्टान्त दिया है। तीन मनुष्य एक साथ यात्रा कर रहे थे। मार्गस्थ अटवी में चोरों का समूह मिला। वह रास्ता रोके खड़ा था। यात्रियों में से एक डर कर उलटे पैर भागा। एक को चोर ने पकड़ लिया। तीसरा साहसी था जो चोरों से लड़कर विजयी बना और आगे बढ़कर इच्छित स्थान पर पहुँच गया। इस उदाहरण में बताये तीन प्रकार के यात्रियों के समान तीन करण हैं और चोरों के समान मिथ्यात्व है। भागने वाले डरपोक यात्री के समान वे जीव हैं, जो यथाप्रवृत्तिकरण तक आ कर भी अपूर्वकरण नहीं करके लौट जाते हैं (यथाप्रवृत्तिकरण से भी गिर जाते हैं) और फिर उसी मिथ्यात्व नगर में पहुँच जाते हैं-जहां से आये थे। पकड़ा जाने वाला यात्री यद्यपि अभी यथाप्रवृत्तिकरण में है, तथापि आगे नहीं बढ़ेगा, तो उसे भी पीछे लौटना पड़ेगा। जो यात्री चोरों को जीतकर इच्छित स्थान पर पहुँच गया, उसके समान हैं-अपूर्वकरण करके सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव। ___ 'कोदों' नामक धान्य, मादक (नशीला) भी होता है। उसके खाने से नशा चढ़ता है और खाने वाला उस नशे में विकृतमानस होकर तड़पता है। आदिवासी लोग, अपने पशुओं को मारकर खाने वाले बाघ, चीते और सिंह आदि को मारने के लिए वैसे मादक कोदों को मांस में मिला देते हैं, जिसे खा कर हिंसक प्राणी मर जाते हैं। ऐसे मादक कोदों के समान 'मिथ्यात्व' है। गाढ़ मिथ्यात्व तो विष के समान है, जो आत्मा की दर्शन-शक्ति का घात करता है। कोदों को छाछ आदि से धोकर मादकता कम की जाती है, इससे वह उतना For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy