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________________ सम्यग्दर्शन की महिमा आचार्य श्री नानालालजी म.सा. सम्यग्दर्शन अध्यात्म-साधना का मूल आधार एवं मुख्य केन्द्र है। वह मुक्तिमहल का प्रथम सोपान है। यह श्रुत और चारित्र धर्म की आधार शिला है। जिस प्रकार उच्च एवं भव्य प्रासाद का निर्माण दृढ़ आधार शिला या मजबूत नींव पर ही संभव है, उसी तरह सम्यग्दर्शन की नींव पर ही श्रुत-चारित्र धर्म का भव्य प्रासाद खड़ा हो सकता है। आत्मा में अनन्त गुण हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन गुण का सर्वाधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। सम्यग्दर्शन का इतना अधिक महत्त्व इसलिये है कि सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान और चारित्र उपलब्ध होते हैं। सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही यम-नियम-तप-जप आदि सार्थक हो सकते हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में समस्त ज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्या है। जैसे अंक के बिना शून्यों की लम्बी लकीर बना देने पर भी उसका कोई मूल्य नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई अर्थ नहीं रहता। अगर सम्यक्त्व रूपी अंक हो और उसके बाद ज्ञान और चारित्र के शून्य हों तो प्रत्येक शून्य से दस गुनी कीमत हो जाती है। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व आता है। इसीलिए दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों ही भाव सम्यक्त्व होते हुए भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में रूढ़ हो गया है। यह सम्यग्दर्शन की प्रधानता सूचित करता है। सम्यग्दर्शन की महिमा और गरिमा का शास्त्रकारों और समर्थ आचार्यों ने स्थान-स्थान पर विविध रूप से वर्णन किया है। नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अगणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्यि अमोक्खस्स निव्वाणं॥-उत्तरा. २८.३० अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती; सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और मोक्ष-प्राप्ति के बिना कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व से ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान से चारित्र और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार क्रम से सर्वगुणों की प्राप्ति होने से जीव समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। अतएव समस्त गुणों के मूलभूत सम्यक्त्व को सर्वप्रथम प्राप्त करने का प्रयास अपेक्षित है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा गया है न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यतनूभृताम् ।।-रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३४ अर्थात् तीनों काल और तीनों लोक में जीवों के लिए सम्यग्दर्शन के समान दूसरा कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी अन्य कोई नहीं है। त्रिलोक स्थित इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती आदि चेतन और मणि, मंत्र-औषधि इत्यादि जड़द्रव्य-ये कोई भी सम्यक्त्व के समान उपकारी नहीं हैं। इस जीव का सबसे अधिक अनर्थ करने वाला मिथ्यात्व के समान अन्य कोई जड़ या चेतन द्रव्य तीन काल और तीन लोक में नहीं है, न हुआ, न होगा। समस्त संसार के दुःखों का नाश करने वाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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