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________________ ४१६ जिनवाणी-विशेषाङ्क मनौतियाँ पूरी हो जाती हैं, प्रत्युत जो देवी-देवताओं को नहीं मानते उनके मुकाबले में भी उनको मानने और मनौती करने वाले असफल हो जाते हैं। यदि देवी-देवता वास्तविक हैं और अरहंत प्रतिमाएँ भी चमत्कारपूर्ण हैं तो उनकी मनौती करने वालों को अन्य लोगों के समान बुद्धि का उपयोग व किसी प्रकार का प्रयत्न किये बिना ही, जो-जो भी मनौतियाँ की हैं उन सभी में सफलता मिलनी चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं, उनको भी बुद्धि का उपयोग व सब प्रयत्न करना ही पड़ता है । फिर सफलता का श्रेय इस बुद्धिवादी व वैज्ञानिक युग में उन देवी देवताओं को देना अविवेकपूर्ण ही है। मुस्लिम-युग का लम्बा इतिहास इसका साक्षी है। महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर की मूर्ति को तोड़ा, तब न तो वह मूर्ति अपनी रक्षा कर सकी, न ही अन्य देवी देवता। यज्ञ, मन्त्र, जप, देव-देवता आदि ने किसी भी अत्याचारी का बाल भी बांका नहीं किया। हमारे देश के चुनावों में भी हम देखते रहे हैं कि कई उम्मीदवार विंध्यवासिनी देवी, वैष्णो देवी, तिरुपति, बैलारी की दरगाह आदि की मनौतियाँ करते हुए और इस संबंध में बड़े-बड़े तांत्रिकों की सहायता लेते हुए तथा यज्ञ व हवन कराते हुए भी चुनाव में हार जाते हैं। सांसारिक कामनाओं के लिए मंत्रशक्ति का प्रयोग धर्म विरुद्ध-ध्यान की साधना द्वारा प्राप्त शक्ति की सार्थकता केवल आत्मशुद्धि तथा उपसर्ग आदि के समय धर्म रक्षा के लिए है, सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए नहीं। मंत्र, तंत्र की साधना भी एकाग्रता बिना नहीं हो सकती। अतः वह भी ध्यान की ही एक विधि है तथा जहाँ वह साधना सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है, वहां वह आर्तध्यान या रौद्रध्यान ही हो सकती है, धर्म ध्यान नहीं हो सकती। अतः सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए मंत्रों आदि का उपयोग प्राचीन शास्त्रों में कहीं नहीं बताया गया है। महर्षि पतंजलि ने भी योगदर्शन में सचेत कर दिया है कि सिद्धियों का उपयोग करना आत्मकल्याण में बाधक बनता है। मंत्रों द्वारा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की कथाएं तो मध्ययुग में भट्टारकों द्वारा रची गई थी। जब असाता कर्म का तीव्र उदय हो उस समय तो मंत्रजप आदि कुछ कर ही नहीं सकते। मार्ग तो यही है कि बिना किसी सांसारिक कामना के अरहंतों की उपासना की जावे और असाता का उदय होने पर उसे समभावपूर्वक सहन किया जावे। होम, हवन सम्बन्धी मिथ्यात्व होम, हवन करने की जैन सिद्धान्त में कोई संगति नहीं है। यह विकृति तो जैन धर्म में वैदिक धर्म के प्रभाव से आई है। हवन और यज्ञोपवीत का सबसे पहले वर्णन आचार्य जिनसेन के आदि पुराण में मिलता है जो ईसा की नवीं शताब्दी में अर्थात् भ. महावीर के १३०० वर्ष बाद हुए। वह समय जैन धर्मावलंबियों के लिए बड़ा संकट का था । अतः आचार्य जिनसेन को परिस्थिति वश धर्मरक्षार्थ वैदिक धर्म के हवन, यज्ञोपवीत आदि क्रियाकांडों की जैनियों के लिए भी सृष्टि करनी पड़ी। इसमें हिंसा तो होती ही है, इसके अतिरिक्त आज के महंगाई के समय में दूध, घी, मेवा अनाज आदि को आग में जलाकर धर्म मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं है, जबकि हमारे देश में करोड़ों लोगों को घी की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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