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________________ सम्यग्दर्शन : विविध ४०७ तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं - गुरुमूढ़ता। लोग हर किसी को गुरु बना लेते हैं। जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं मालूम पड़ता। गुरु तो होना ही चाहिए । तो किसी को भी गुरु बना लेते हैं। किसी से भी कान फुंकवा लिए। यह भी नहीं सोचते कि जिससे कान फुंकवा रहे हैं, उसके पास कान फूंकने योग्य भी कुछ है 1 मेरे पास लोग आते हैं, कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी ? मैंने कहा, 'अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं ।' वे कहते हैं, 'मिला कहां ?' वो तो गांव में जो ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था। अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो थोड़ा तुम सोचते कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम-से-कम तुमसे एक 'कदम तो आगे हो । लेकिन गुरु होना चाहिए । ... बिना गुरु के कैसे रहें । किसी को भी गुरु बना लेते हैं। जो मिल गया वही गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये। पति के गुरु थे, वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम खोज है- गुरु को खोज लेना । गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लम्बी अनन्त की यात्रा पर जा सको । तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं है और इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता । या तो भीड़ को मानता है, या देवी - देवताओं को पूजता रहता है। कितने देवी-देवता हैं, हर जगह मंदिर खड़े हैं । कहीं भी झाड़ के नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर थोड़ी देर में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है । तुम अगर थोड़ी देर किसी पत्थर पर, सिन्दूर पोत कर थोड़ी देर बैठ जाओ, तो शाम होते-होते तुम खुद ही पूजा करोगे । क्योंकि तुम देखोगे कि इतने लोग पूजा कर रहे हैं, कोई सभी गलत थोड़ी हो सकते हैं । तुम्हीं ने रंग पोता था, लेकिन जरूर कुछ बात होगी, कुछ राज होगा। शायद तुमने ठीक पत्थर पर रंग पोत दिया है । अनजाने सही । तुमने परमात्मा की किसी प्रतिमा पर रंग डाल दिया, इतने लोग पूज रहे हैं । यह मूढ़ता छूटनी चाहिए । पांचवां चरण है-उपगूहन। उपगूहन का अर्थ है, अपने गुणों और दूसरे के दोषों को प्रगट न करना । यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है, अपने गुण प्रगट न करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना । हम तो करते हैं उलटा ही। अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं है वह भी प्रगट कर देते हैं, और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वह भी प्रगट कर देते हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो । महावीर कहते हैं, जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत कहना । तुम्हारा क्या प्रयोजन है ? दूसरे को दोष हैं- दूसरा www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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