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सम्यग्दर्शन : विविध
४०५ तुम इसे जरा गौर करना। हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। अपनी भूल को हम सोने से ढंक लेते हैं, दूसरे के सौन्दर्य को भी हम मिट्टी से पोत देते है। इसको महावीर कहते हैं जुगुप्सा । जुगुप्सा के अभाव का नाम है निर्विचिकित्सा।
निर्विचिकित्सा बहमल्य सत्र है। इसे अगर खयाल में रखा हो तो तम आत्म-रूपान्तरण को पा सकोगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो आदमी अपनी भूलें छिपाता है और दूसरों के गुण दबाता है, वह आदमी कभी गुणवान न हो सकेगा। दूसरे के गुणों को देखना, पहचानना, स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि दूसरे में देखकर ही तो तुममें भी उनके जन्म का सूत्रपात होगा। किसी के मधुर कंठ को सुनकर ही तुम्हें खयाल उठेगा कि मेरा कंठ भी मधुर हो सकता है। किसी कोयल की कुहू कुहू सुनकर तुम्हारे भीतर भी रस का संचार होगा। - दूसरों में जब कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार करना। उस स्वीकृति में, तुम्हारे भीतर भी महिमा के जन्म का पहला बीजारोपण होगा। और अपने भीतर जब कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना मत, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, छिप जाते हैं, और भीतर-भीतर बढ़ते रहते है। जिसे तुमने छिपाया वह बढ़ेगा। अपना दोष हो तो उसे प्रगट कर देना, उसे स्वीकार कर लेना।
तुमने कभी खयाल किया, दोष स्वीकार करने से ही तुम्हारे भीतर क्रान्ति घटित हो जाती है । उस दोष का तुम्हारे ऊपर कब्जा छूट जाता है।
चौथा चरण है-अमूढदृष्टि। यह बहुत क्रांतिकारी चरण है।
महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रान्त दृष्टियाँ हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं-लोकमूढ़ता। अनेक लोग अनेक कामों में लगे रहते है, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज ऐसा करता है, क्योंकि और लोग ऐसा करते है। उसको महावीर कहते हैं, लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, इसलिए हम भी ऐसा करेंगे। ..सत्य का कोई हिसाब नहीं है, भीड़ का हिसाब है। तो यह भेड़चाल हुई।
सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से ऊपर उठे, जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर रहा हूँ कि और लोग कर रहे हैं।
अक्सर तुम कहते पाये जाते हो कि हमारे घर में तो यह सदा से चला आया है। हमारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे, इसलिए हम भी कर रहे हैं। तुमने कभी यह भी पूछा कि इसके करने का कोई प्रयोजन है, कोई लाभ है ? इसके करने से जीवन में कुछ सम्पदा, शांति, आनंद का अवतरण होता है ? नहीं, तुम्हारे पिताजी भी सत्यनारायण की कथा करवाते थे, तुम भी करवा रहे हो, क्योंकि हमारे यहां सदा से होता चला आया है। और सत्यनारायण की कथा में सत्य जैसा कुछ भी नहीं है, मगर हो रही है कथा। क्योंकि न करवायें, तो तुम अकेले पड़ जाते हो, भीड़ से टूटते हो।
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