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________________ सम्यग्दर्शन: ३९७ सम्यक् ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक् कर्म का शरीर में समन्वय स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर इन तीनों शरीरों का सम्मिलित रूप हमारा यह शरीर है। स्थूल शरीर से जाग्रत अवस्था में कर्म होता है सूक्ष्म शरीर से स्वप्न अवस्था में दर्शन होता है तथा कारण शरीर से सुषुप्ति अवस्था में मात्र अद्वैत बोध होता है। कर्म , दर्शन और बोध तीनों अवस्थाओं में सभी को समान रूप से होते हैं। मोक्ष का अनुयायी इन तीनों के सम्यक्त्व का निर्वाह करता है। मोक्षमार्गी चाहता है कि मेरे स्थूल शरीर से निष्काम कर्म हो, सूक्ष्म शरीर से समदर्शन हो तथा कारण शरीर से अद्वैत बोध हो। स्थूल शरीर से निष्काम कर्म सहज होना चाहिए निष्काम कर्म की सहजता से तात्पर्य है-जैसे प्राण कर्म । शरीर में श्वास-प्रश्वास का कर्म निष्काम कर्म है। काम, क्रोध, लोभ, मोह सबके साथ प्राण हैं। लेकिन प्राणों को न क्रोध से राग है न काम से विराग। प्राण असङ्ग हैं। उसी प्रकार हमारी इन्द्रियों से जो भी कार्य हों उनमें आसक्ति न हो। शरीर श्री गुरुदेव का मन्दिर है। इससे श्रीगुरु जो भी काम, जब भी जिस भी रूप में करवाना चाहें करवाने दें। हमें श्री सद्गुरु के द्वारा इस शरीर के माध्यम से किये जाने वाले कार्यो का द्रष्टा मात्र बनने का प्रयास करना है। प्राणायाम प्राणों से परे जाने की प्रक्रिया है । प्राणों से परे जाने पर ही द्रष्टा बनना सम्भव है। सूक्ष्म शरीर के स्तर पर समदर्शन स्वाभाविक है . सूक्ष्म शरीर की स्थिति में यथा स्वप्न की स्थिति में समदर्शिता स्वाभाविक है। स्वप्न में प्राणों के चलते हुए भी प्राणों का भान नहीं होता। व्यक्ति प्राणों से परे होता है। उस समय मन काम करता है। उस मानसिक स्तर पर बड़ी से बड़ी वस्तु भी उतना ही आकार घेरती है, जितना छोटी से छोटी वस्तु । महल, हाथी भी उतने ही आकार के हैं जितने कि मक्खी, मच्छर आदि। अत: उस स्तर पर समदर्शित्व स्वाभाविक है। कारण शरीर में अद्वैत बोध वस्तु स्थिति है सुषुप्ति अवस्था वाले कारण शरीर में अद्वैत बोध एक वस्तुस्थिति है। व्यक्ति अद्वैत आत्मानन्द में लीन रहता है। माण्डूक्य श्रुति में इसे 'आनन्दभुक् चेतोमुखः' कहा है। जागने पर जो ‘सुखमहमस्वाप्सम् न किञ्चिदवेदिषम्' कहा जाता है उसमें 'सुखमहमस्वाप्सम्'। यह आनन्दभुक् का अनुभव है और किञ्चिदवेदिषण , यह चेतोमुख का अनुभव है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गीतोक्त सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् कर्म मनुष्य शरीर में सर्वथा सम्भव हैं। २१/५४, चौपासनी हाउसिंग बोर्ड, जोधपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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