________________
........
३९६
जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यक् कर्म
सम्यक् दर्शन की सहज परिणति सम्यक् कर्म अर्थात् निष्काम कर्म में होती है। निष्काम कर्म से तात्पर्य आसक्ति रहित कर्म से है
'तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।-गीता, ३.९ . जब तक राग-द्वेष रहेंगे तब तक अनासक्त कर्म नहीं हो सकता। इसीलिये सुख-दुःखादि द्वन्द्रों में समदृष्टि हुए बिना निष्काम कर्म सम्भव नहीं। भगवान् ने कर्म के सन्दर्भ में अनासक्त कर्म के महत्त्व को ही स्पष्ट किया है'कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥-गीता, ४.१८ 'यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ।। ४.१९ 'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ ४.२० ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। ५.१० 'कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥५.११ . इत्यादि अनेक श्लोक अनासक्त कर्म करने के लिए उपदिष्ट हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम छ: अध्यायों में मुख्यतः सम्यक् कर्म रूप निष्काम कर्म का, सात से लेकर बारहवें अध्याय तक सम्यक् दर्शन रूप समदर्शन का तथा तेरहवें अध्याय से लेकर अठारहवें अध्याय तक प्रधानतः सम्यक् ज्ञान रूप अद्वैत बोध का निरूपण है।
सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् कर्म ये तीनों श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मोक्षमार्ग हैं।
प्रश्न हो सकता है कि क्या ये तीनों अलग-अलग रूप से मोक्षमार्ग हैं या एक साथ सम्मिलित रूप से। इसका उत्तर यह है कि साधक अवस्था में पहले सम्यक कर्म का अभ्यास, तत्पश्चात् सम्यक् दर्शन रूप समदर्शन का भाव और अन्त में सम्यक् ज्ञान रूप अद्वैत बोध की स्थिति आती है। पहले जो यह कहा गया कि अद्वैत बोध से समदर्शन और समदर्शन से ही निष्काम कर्म सम्भव है उसका तात्पर्य यह है कि जीवन्मुक्त दशा में व्यक्ति के जो सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् कर्म हैं वे ही वास्तविक हैं, स्थिर हैं। साधना अवस्था में तो इन सबका प्रयास किया जाता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org