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________________ सम्यग्दर्शन : विविध ३९३ करता है, उसके अच्छे या बुरे फल उसे भुगतने ही पड़ते हैं। कार्य-कारण का तत्त्व यहां कार्यरत होता है । यह कार्य मानसिक, वाचिक और कायिक इस तरह तीनों प्रकार का होता है, जिसे जैन शास्त्रों में योग कहा है । पांचवा पद——मोक्ष या मुक्ति है।' आत्मा में क्रिया करने की क्षमता है, वैसे ही कर्म-निर्जरा करने की भी क्षमता है । वह कर्मों को नियत समय से पहले भी अपने पुरुषार्थ से कर्म भोग कर नष्ट करता है (निर्जरा करता है) और समभाव और शांतिपूर्वक भोगे तो नये कर्म उत्पन्न नहीं होने देता। इस प्रकार की आत्मशक्ति बढ़ाने के लिए साधक को स्वाध्याय, ध्यान, सत्संग और सतत आत्मभावना में रहने का अभ्यास करना आवश्यक है । ऐसे साधक का आत्मसामर्थ्य बढ़ने के कारण उसे संसारी कार्यों में कोई आसक्ति नहीं रहती, उसका देहाध्यास कम हो जाता है और उसकी आत्मा की शक्ति वृद्धिगत होती है । छठा पद है— 'मोक्ष या मुक्ति का उपाय है।' सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की साधना और आत्मा के पुरुषार्थ का उपयोग करने से कर्मों की निर्जरा की जा सकती है और पूर्ण वीतरागता प्राप्त होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है । इस तरह ‘आत्मसिद्धि' ग्रन्थ के छह पदों का अभ्यास, चिंतन और सतत ध्यान (आत्मभावना) करने से साधक को सम्यक् दर्शन आसानी से प्राप्त हो सकता है 1 इससे साधक को 'स्वस्वरूप' का अनुभव होता है। सतत आत्मभाव में रहने के कारण कषाय, विषय-वासना साधक को सताती नहीं हैं, वे दूर रहती हैं और साधक अखंड रूप से आत्मस्वरूप में 'स्वभाव' में रह सके तो उसके लिए केवलज्ञान, मुक्ति (अर्थात् सब दुःखों से मुक्ति) और शाश्वत सुख दूर नहीं रहता । Jain Education International - सम्यक्, ८१ / ११ बानेर रोड, औंध पुणे- ४११००७ समकित नहीं लियो रे समकित नहीं लियो रे, यो तो रुलियो चतुरगति मांही, सथावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराधियो; तीन काल सामायिक की पण, शुद्ध उपयोग न साध्यो || १ || समकित ... मुँह बोलण को त्याग ही लीनो, चोरी को भी त्यागी, व्यावहारिक में कुशल भयो पण, अन्तरदृष्टि न जागी ॥ २ ॥ समकित ... निज पर नारी त्यागन करके, ब्रह्मचर्यव्रत लीधो स्वर्गादिक या को फल पामे, निजकारण नहीं सीधो ॥३ ॥ समकित |.... ऊर्ध्वभुजाकरि उंधो लटकियो, भस्मीरमाय धूम घटके, जटा झूठ सिर मुंडे झूठो श्रद्धा बिन भव भटके ॥४ ॥ समकित ... द्रव्य किया सब त्याग परिग्रह द्रव्यलिंग घर लीनो, देवीचन्द कहे इण विधि तो हम बहुत बार करलीनो ॥५. । समकित ... प्रेषक - मीठालाल मधुर, बालोतरा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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