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जिनवाणी-विशेषाङ्क के अनुसार प्रभु 'अहुरमज्द' सर्वशक्तिमान हैं जो सत्य, अहिंसा, न्याय, करुणा, पुण्य आदि शुभ कर्मों के प्रेरक हैं। पारसी धर्म में भी ईसाइयत एवं इस्लाम की भांति एक ही ईश्वर में आस्था और प्रभु 'अहुरमज्द' की उपासना एवं आराधना बतलाई गई है। पारसीधर्म के धर्मग्रन्थ 'अवेस्ता' में प्रभु 'अहुरमज्द' को संसार का निर्माणकर्ता और जीवनप्रदाता बताया गया है। 'अवेस्ता' धर्मग्रन्थ की भाषा में प्रभु 'अहुरमज्द' मानव को पुण्य एवं शुभ कर्मों तथा शुद्ध प्रवृत्तियों में लगाकर उनका उद्धार करते हैं। इनका आदिकाल से विरोधी 'अहिर्मन' मानव को असत्य, दुराचार, निर्दयता और पापकर्म जैसे अशुभ कार्यों और कुप्रवृत्तियों की ओर दुष्प्रेरित करता है। इसी प्रकार का चिन्तन ईसाई धर्मग्रन्थ 'बाइबल' में मिलता है - ईश्वर और 'सेटन' के रूप में। इस्लाम के धर्मशास्त्र ‘कुरान' में भी खुदा और शैतान की संकल्पना की गई है।
जरथुस्त्रीय उपासना का साधन अत्यन्त व्यापक एवं जटिल है। निःस्वार्थ सेवाभावना पारसियों का जीवन लक्ष्य है। पारसी धर्म का सच्चा और वास्तविक अनुयायी सांसारिक जीवन तो व्यतीत करता है, परन्तु संसार के लोभ-मोह-अहंकार से प्रभावित नहीं होता है। राग-द्वेष, द्वन्द्व, संघर्ष इत्यादि उसे सेवाधर्म से विचलित नहीं कर सकते। पारसी लोग अपने निर्मल हृदय में पवित्रात्मा प्रभु 'अहुरमज्द' को धारण करते हुए अहैतुक परोपकार और सेवा का जीवन-यापन करते हैं। हिन्दू (सनातन) धर्म के रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत' मत पारसियों को अधिक प्रेरणास्पद प्रतीत होता है। "जीवन मिथ्या या माया नहीं है ; उसका विशिष्ट अर्थ है एवं वह सार्थकतापूर्ण है।" इसी विश्वास के साथ वे मानव जाति की सेवा को आदर्श मानते हैं और जनहित की भावना को ही ईश्वर की सच्ची साधना मानते हैं। पारसी मत के अनुसार ईश्वर के प्रति प्रेम, मानव मात्र के प्रति कर्त्तव्यपरायणता की भावना, जन-जन की सेवा एवं पारमार्थिक कल्याण हेतु स्वजनों का परित्याग, सुख-साधनों एवं भोग-विलासों का बहिष्कार, आत्म-संयम एवं तपस्या द्वारा ही सम्भव है। जैन धर्म में भी इन्हीं महाव्रतों का उल्लेख किया गया है। बौद्ध धर्म में भी मन की एकाग्रता को महत्त्व दिया गया है। मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध आचरण का प्रावधान हिन्दू (सनातन) धर्म में भी रखा गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह सत्य है कि प्रेम एवं विश्वास से ही लोकसेवा सम्पन्न हो सकती है।
पारसी धर्म की समस्त क्रियाओं में अग्नि का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। सांसारिक व्यवहारों एवं क्रियाकलापों में सर्वत्र अग्नि की प्रधानता है। आकाश, वायु, जल, पृथ्वी तथा अग्नि इन पंचभूत अर्थात् पांच तत्त्वों से संसार की उत्पत्ति होती है
और मानव शरीर का निर्माण होता है। पारसी मानते हैं कि प्रभु 'अहुरमज्द' अग्निमय प्राण शरीर वाले हैं, संसार के केन्द्र बिन्दु हैं, आत्मिक सूर्य हैं, विश्व के स्रष्टा हैं। अग्नि ईश्वर-पुत्र है जो कि भौतिक जगत् का सर्जक है और परमपिता प्रभु 'अहुरमज्द' का प्रतिनिधि एवं अनन्त सुरक्षा का स्वामी है। इसीलिए पारसियों के उपासना-स्थल पवित्र स्थान 'अगियार' अर्थात् अग्नि-मंदिर कहलाते हैं। इनमें अत्यधिक सम्मान एवं भक्तिभाव से अग्नि प्रज्वलित की जाती है। श्वेत कमल पारसियों की पवित्रता का प्रतीक चिह्न है।
. -हेमन्त मेन्शन, नई सड़क, जोधपुर (राज.)
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