SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्राप्ति के स्वर्णिम प्रसंग । श्रीमती हुकुम कंवरी कर्णावट (१) चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के २७ पूर्वभव मुख्य बताए गए हैं। उनमें प्रथम भव 'नयसार' का था। . उस समय प्रतिष्ठानपुर नगर था। नगर सुन्दर था। वहाँ का राजा न्यायी और नीतिवान् था। राजाज्ञा से ग्रामचिंतक नयसार एक दिन वन में लकड़ी लेने गया। वन घना था। उसमें सूखे पेड़ भी थे। नयसार ने सूखी लकड़ी इकट्ठी कर ली ।सूर्य काफी ऊपर आ गया था। उसे भूख लगी, अतः वह खाना खाने बैठा। खाना प्रारंभ करने वाला ही था कि उसे मार्ग भूले हुए एक तपस्वी मुनिराज आते हुए दिखाई दिये। मुनिराज के दर्शन कर वह बहुत प्रसन्न हुआ । सोचने लगा-'मेरे पास तो रोटी है और कुछ नहीं। मुनिराज को क्या दूँ? फिर विचार किया तपस्वी मुनि को खाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। फिर भक्तिपूर्वक आदर से हाथ जोड़कर बोला-'मेरे पास रोटी है, कृपाकर इसे ग्रहण कीजिए और मुझे तारिए।' मुनिराज ने निर्दोष आहार ग्रहण किया। नयसार ने आहार के साथ गाँव का सही रास्ता भी उन्हें बताया। __ मनिराज ने नयसार को उपदेश देकर आत्म-कल्याण का मार्ग समझाया। त्यागी मुनिराज के उपदेश से उसने संसार और आत्मा के स्वरूप को जाना। फलस्वरूप उसकी दृष्टि शुद्ध बनी और उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। यही नयसार का जीव २७वें भव में तीर्थंकर महावीर बना। (२) ___ महाराजा श्रेणिक के नाम से समस्त जन परिचित हैं। इतिहास में उन्हें बिम्बसार के नाम से जाना जाता है। श्रेणिक मगध के सम्राट थे। एक बार मगध सम्राट् श्रेणिक अपने परिवार सहित राजगृही नगर के बाहर पर्वत की तलहटी में बने मण्डीकुक्षि उद्यान में घूम रहे थे। यहीं उन्होंने एक शान्त-दान्त ध्यान में लीन सुकुमार तरुण मुनि को देखा। तपस्वी मुनि को देखकर सम्राट् आश्चर्य चकित हो गया। वन्दन करके मुनि से पूछा-'भगवन् आप इस तरुणवय में भोगों को छोड़कर साधु क्यों बन गए?' मुनि ने उत्तर दिया'मैं अनाथ था।' तेजस्वी मुनि को देखकर राजा को विश्वास नहीं हुआ। फिर बोल उठे–'मैं आपका नाथ बनता हूँ।' मुनि बोले-'राजन् तुम स्वयं अनाथ हो। मेरे क्या · नाथ बनोगे?' दो टूक उत्तर पाकर श्रेणिक चकित रहे। फिर बोले-'मेरे पास सभी कुछ है। मेरी सत्ता और मेरी आज्ञा चलती है। भंते ! आप मिथ्या मत कहिए।' 'हे राजन् ! तुम एकाग्रचित होकर सुनो कि कैसे कोई व्यक्ति अनाथ हो जाता है और मैंने किस भाव से अनाथ का प्रयोग किया है ।' मुनि बोले–मेरा भरा-पूरा परिवार था। धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी मेरे पास। एक बार मेरी आंखों में भयंकर पीड़ा उत्पन्न हुई। वह असह्य थी। वैद्य, डाक्टर सभी से उपचार करवाया। कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy