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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन विरत रहता है। एक मृत युवति को देखकर भोगी उससे भोग करना चाहता है, चोर उसके जेवर लूट लेना चाहता है। सियार उसे मांस समझकर खा लेने का इच्छुक है
और एक संत उसकी लाश को देखकर जीवन की क्षण भंगुरता का विचार करता है। यह सब दृष्टि का भेद है। सम्यक्त्वी की दृष्टि संत के समान होती है, जिसमें वस्तुओं की क्षणभंगुरता का बोध होता है। धन्ना सेठ जिस सुभद्रा को पत्नी समझते थे, दृष्टि बदली तो उसे बहन मानकर वैसा ही व्यवहार करने लगे।
आवश्यकता दृष्टि में परिवर्तन की है, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में आने की है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही मुक्ति निकट हो जाएगी। संसार का स्वरूप बदला हुआ प्रतीत होगा। फिर व्यक्ति बालक की भांति बेर के लिए कीमती हीरे को नहीं फेंकेगा। कहा है
__ जहां जिसकी समझ नहीं, वहां अंधेरा घोर।
रत्न कीमती छोड़कर, बालक पकड़े बोर ।। बालक के हाथ में कीमती रत्न हो और उसे खाने का बोर दिया जाय तो वह रत्न को फेंककर बोर ले लेता है, कारण कि उसको रत्न का मूल्य ज्ञात नहीं है। मिथ्यात्वी भी इसी प्रकार अमूल्य मानव भव को भोगों के बदले में खो देता है, किन्तु सम्यक्त्वी उसका मूल्य जानकर उसे सार्थक बना लेता है।
सम्यक्त्वी की पहचान शरीर की कोई हड्डी क्रेक हो जाय तो एक्स-रे से पता चलता है, सिर में कहीं गांठ आदि हो तो सी.टी. स्केन से पता चल जाता है, शरीर के भीतर अन्य कोई गांठ आदि हो तो सोनोग्राफी से ज्ञात हो जाता है, थर्मामीटर से बुखार नाप लिया जाता है। इस प्रकार बाह्य विकार के अनेक परीक्षण यन्त्र हैं, किन्तु भीतर के विकारों का एवं सम्यग्दर्शन का बोध किसी यन्त्र से नहीं, व्यक्ति के आचरण से होता है। सम्यग्दर्शन होने के पांच लक्षण माने गए हैं-१. शम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य।
सम्यक्त्वी समता में रहता है । वह विषम परिस्थितियों में भी समभाव में रहता है। उसका समभाव नाटक नहीं होता। कषाय के पतले होने से वह समभाव में रहता है। उसका समभाव सहज रूप से होता है। यदि धर्मकार्यों को करते हुए मन प्रमुदित होता है, प्रसन्न होता है और पापकार्य करते हुए लज्जा, ग्लानि एवं विक्षोभ का अनुभव करता है तो यह भी सम्यक्त्वी होने की पहचान है। विषय-भोगों के प्रति आकर्षण में कमी होना निर्वेद है। यह एक प्रकार से वैराग्य है। सम्यक्त्वी जीवन-निर्वाह के लिए आहारादि लेता है, भोग की भावना से नहीं। सम्यग्दृष्टि जीव की यह भी पहचान होती है कि वह संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता। पानी में नाव है पर नाव में पानी नहीं । वह संसार में है, परन्तु उसमें संसार नहीं होता। दुःखियों के दुःख को देखकर सम्यक्त्वी अनुकम्पित होता है तथा उनके दुःख को दूर करने हेतु प्रयासरत होता है। सम्यक्त्वी की जीवादि नवतत्त्वों एवं सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर आस्था होती है। यही आस्तिक्य कहलाता है।
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