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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार २७१ सभी आत्मवादी दर्शनों ने आत्मा को महत्त्व दिया है। जैन सूत्रग्रंथों में गीता और उपनिषदों में आत्मा की महत्ता गाई गई है । आत्मा अजर है, अमर है, कर्ता हैं और कर्म का भोक्ता है, शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतंत्र है। इस आत्मा के बारे में श्रद्धा सम्यक्त्व का प्रधान लक्षण है। श्रीमद् रायचन्द्र ने 'आत्म- सिद्धि' ग्रन्थ में कहा है आत्मा छै, ते नित्य छै, छै कर्ता निज कर्म 1 छै भोक्ता वली मोक्ष छै, मोक्ष उपाय सुधर्म ॥ अर्थात् आत्मा है, वह नित्य है, वह अपने कर्म की कर्ता है और भोक्ता भी है । मोक्ष है और उसका उपाय सुधर्म है। जब तक मनुष्य में आत्मा का बोध नहीं आता, आत्मा में उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती, वह भटकता ही रहता है । बुद्धि का कितना भी उत्कर्ष हो, वह उसको प्रगति की ओर बढ़ने में, सफल बनाने में असमर्थ रहती है । महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने आधुनिक मनुष्य को लक्ष्य करके कहा है बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान । चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान ?” – कुरुक्षेत्र आत्मा अनन्त शक्ति, वीर्य और तेज का पुञ्ज है । पर आज का मनुष्य इसे भूल कर पर - पदार्थों में अधिक आसक्ति रखता है। यही उसके दुःख का मुख्य कारण है । जब आत्म-शक्ति जागरित होती है तो व्यक्ति में असीम शक्ति आ जाती है। बचपन में एक शेर के बच्चे की कहानी सुनी थी कि वह अपने माता-पिता से बिछुड़ कर भेड़ों के एक समूह के साथ रहने लगा। थोड़े ही दिनों में वह दब्बू, कमजोर और कायर बन गया । एक दिन एक शेरनी ने इस समूह पर हमला किया। सारी भेड़ें भय से भयभीत होकर भागने लगी। शेरनी के तेजस्वी रूप को देखने से उस शेरनी के बच्चे को अपने आत्म-स्वरूप का भान हुआ। वह एक छलांग लगाकर भागा तथा शेरनी के साथ सम्मिलित हो गया । रामायण में वर्णन आता है कि जब हनुमान राम के दूत बनकर लंका पहुंचे तो राक्षसों के किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वे पराजित नहीं हुए। किन्तु आखिर इन्द्रजीत के नागपाश में बंध गए। उस समय रावण ने व्यंग्य में कहा - 'इस बंदर का मुंह काला करके इसे नगर से बाहर निकाल दो । ताकि सब को मालुम हो कि रावण से मुकाबला करने वाले का क्या परिणाम होता है।' हनुमान ने यह सुना तो उनका आत्म-तेज हुंकार उठा । उन्होंने सोचा - यह तो हनुमान का नहीं, राम का अपमान होगा । मैं राम का दूत हूं, शरीर मेरा है, आत्मा राम की है । कहते हैं यह सोचते ही उनमें आत्मा की वह शक्ति जगी कि वे एक झटके में ही नागपाश को तोड़कर मुक्त हो गए। आत्म-शक्ति का ज्ञान आत्म जागरण का प्रथम सोपान है। अलिप्त जीवन जब मनुष्य को आत्मा एवं अन्य तत्त्वों का भान होता है, उन पर श्रद्धा होती है तब उसके जीवन का दृष्टिकोण बदल जाता है। संसार में रहकर भी वह संसार से लिप्त नहीं होता । अध्यात्म - सार, ५.२५ में इस बात को बड़े सुंदर रूप से व्यक्त किया गया है - “कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी अनासक्त भाव के कारण - www.jainelibrary.org Jain Education Internationa For Personal & Private Use Only
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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