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________________ २५४ जिनवाणी-विशेषाङ्क - मनुष्य ने कई बार साधना की, और एकान्त शून्य जंगलों में, गिरि गुफाओं में जाकर भी की। परन्तु दृष्टि के न बदलने से वह कठोर साधना भी उसके जीवन को समुज्ज्वल नहीं बना सकी। अतः दृष्टि-परिवर्तन के बिना एक सम्राट के द्वारा किया हुआ साम्राज्य का त्याग भी उसके जीवन में अभिनव ज्योति नहीं जगा सकता, तो दृष्टि-बिन्दु में परिवर्तन आये बिना विराट् त्याग एवं कठोर तप भी कोई महत्त्व नहीं रखता। यदि दृष्टि में परिवर्तन हो गया, तो एक नवकारसी का छोटा-सा तप भी जीवन को इतना ऊंचा उठा सकता है, जितना कि बिना दृष्टि बदले कोई व्यक्ति महीनों भूखा रह कर भी जीवन को उतना ऊँचा नहीं उठा सकता। दृष्टि-परिवर्तन के बाद थोड़ा-सा त्याग-तप भी जीवन में प्रगतिशील परिवर्तन ला सकता है। ___ यही बात शास्त्रों के सम्बन्ध में भी है। चाहे वे शास्त्र वैदिक-परम्परा के हो, चाहे बौद्ध या जैन परम्परा के हों, अथवा अन्य किसी भी परम्परा से सम्बन्धित क्यों न हो । वस्तुतः शास्त्र तो अपने आप में केवल शास्त्र ही हैं। वे अपने आप में न तो विष हैं, और न अमृत । विष और अमृत तो मनुष्य की दृष्टि में ही रहते हैं। यदि एक आदमी विषम-वासना एवं कषायों के प्रवाह में बहता हुआ आचारांग सूत्र पढ़ता है, तो वह शास्त्र उसके लिए शस्त्र बन जाता है। भगवतीसूत्र भी, जो कि जैन-परम्परा में एक महत्वपूर्ण आगम माना जाता है, यदि बिना दृष्टि परिवर्तन के कोई व्यक्ति उसे पढ़ता है, तो वह उसके लिए विष बन जाता है। अब प्रश्न होता है कि - भगवती सूत्र कौन-से विकार से विष बना? उत्तर स्पष्ट है - आपकी दृष्टि में तद्प परिवर्तन नहीं हुआ, और आपके मन में सत्य को सत्य के रूप में देखने की भावना भी उद्बुद्ध नहीं हुई, तो उस रूप में वह अमृत भी विष बन जाएगा। तत्त्वतः दूध अमृत माना जाता है। वह शारीरिक शक्ति की क्षति-पूर्ति करने वाला सहज साधन है। क्या बालक, क्या वृद्ध; सभी के लिए वह सात्त्विक शक्ति-प्रदायक है। परन्तु यदि कोई सन्निपात का रोगी दूध-मिश्री का सेवन करे, तो उसका क्या परिणाम होगा? उत्तर - मृत्यु । दूध वस्तुतः अमृत था, परन्तु सन्निपात के रोगी के लिए वह विष बन गया। इसी तरह घी भी अमृत है। यदि स्वस्थ आदमी घी का सेवन करे, तो वह उसके शरीर के जरें-जर्रे में नई स्फूर्ति, नई शक्ति और नया तेज पैदा कर देता है। परन्तु यदि वही घी किसी यकृत के रोगी को पिला दिया जाए, तो वह विष का काम करेगा। ___ हाँ तो, जैन-धर्म का सदा-सर्वदा यह स्वर रहा है कि - मनुष्य पहले अपने दृष्टि-बिन्दु को बदले, और उस पर जमे हुए कीट को साफ करे। यदि दर्पण स्वच्छ होगा, तो उसमें पड़ने वाला प्रतिबिम्ब भी साफ आएगा। परन्तु धुंधले दर्पण में जब . अपनी परछाई देखेंगे, तो वह विरूप ही परिलक्षित होगी। अभिप्राय यही है कि जब तक आपके मन एवं दृष्टि का दर्पण साफ नहीं है, तब तक उस दर्पण में आपका जीवन सही रूप में परिलक्षित नहीं होगा। आप नहीं समझ सकेंगे कि - "मैं कौन हूँ"। यदि दृष्टि धुंधली है, तो भले ही आप संसार भर के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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