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________________ दृष्टि बदलिए a उपाध्याय श्री अमरमुनिजी म.सा. स्व. उपाध्याय श्री अमरमुनि एक चिन्तनशील विचारक संत थे। उन्होंने प्रस्तुत लेख में व्यक्ति को मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि में आने का सहज, किन्तु आवश्यक संदेश दिया है।-सम्पादक ___मानव-जीवन की दो मुख्य धाराएँ हैं - एक दृष्टि और दूसरी सृष्टि । दृष्टि का अर्थ है - मनुष्य का चिन्तन-मनन, विचार, विश्वास और भावना। मनुष्य का जैसा चिन्तन-मनन होगा, उसी रूप में उसका विकास होगा। और सृष्टि का अर्थ है - मनुष्य का रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि। सृष्टि सृजन है। दृष्टि का सृष्टि में उतारना ही सभ्यता और संस्कृति है। ___ मनुष्य के सामने दृष्टि और सृष्टि दोनों हैं। परन्तु प्रश्न यह है कि दोनों में से किसे पहले बदलें? पहले दृष्टि को बदलना आवश्यक है, या सृष्टि को? यदि परिवर्तन करना ही है, तो पहले कहाँ से शुरु करें? ___ कुछ दर्शन हैं, जो पहले सृष्टि को बदलने की बात कहते हैं। उनका अभिप्राय है कि मनुष्य अपने रहन-सहन को बदले, अपने जीवन को मोड़े, और अपने परिवार तथा समाज के जीवन-प्रवाह को भी एक नया मोड़ दे। वह स्वयं अपने तथा दुनिया के जीवन पर नियंत्रण करे। परन्तु जैन-दर्शन का सदा से यह सिद्धान्त रहा है कि मानव पहले अपनी दृष्टि बदले। मनुष्य जब तक अपने दृष्टिकोण को नहीं बदल लेता है, तब तक वह उचित विकास नहीं कर सकता और व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन में अभिनव क्रान्ति भी नहीं कर सकता। यदि वह अपनी अधोमुखी दृष्टि को ऊर्ध्वमुखी नहीं बनाता है, या संसारोन्मुख दृष्टि को मोक्षाभिमुख नहीं करता है, तो वह अपनी जिन्दगी को नया मोड़ नहीं दे सकता। ____ अस्तु, जैन-धर्म का दृष्टिकोण है - पहले दृष्टि बदलें, बाद में सृष्टि । अर्थात्-पहले विचार बदलें, पीछे आचार । आचार से पहले विचार को बदलने की आवश्यकता पर, शायद कुछ भाइयों को आश्चर्य होगा। वह भी इसलिए कि व्यक्ति का वास्तविक रूप आचरण के द्वारा प्रकट होता है। परन्तु आचरण किसी भी छोटी-से-छोटी क्रिया को स्वतः कर सकने में स्वतंत्र नहीं है, बल्कि वह तो वाहन रूप उस घोड़े के समान है, जो अपने सवार के संकेत पर गति-प्रगति करता है। अस्तु, इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार रूपी अश्व पर कोई अदृश्य (छिपा हुआ) सवार अवश्य है। वह अदृश्य सवार है - मन अथवा हृदय, जो अपने विचार रूपी चाबुक के द्वारा आचार रूपी अश्व को प्रतिपल हाँकता रहता है। अतः यदि हम आचार रूपी अश्व (घोड़े) को सत्-मार्ग पर देखना चाहते हैं, तो घोड़े की गति बदलने से पहले, हमें अपने हृदय रूपी सवार को संयमशील एवं विवेकपूर्ण बनाना चाहिये; क्योंकि विचार के साथ बदला हुआ आचार ही महत्त्व रखता है। बिना दृष्टि के बदले, सृष्टि बदलना कोई अर्थ नहीं रखता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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