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________________ २२० २२..................... जिनवाणी-विशेषाङ्क. प्रकट नहीं हो पाता। तब क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है। इस प्रकृति का उदय चौथे से सातवें गुणस्थान तक रहता है। ज्ञातव्य तथ्य १. मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व प्राप्त करते समय उपर्युक्त सात प्रकृतियों का क्षय-उपशम आदि होता है। २. अनन्तानुबन्धी कषाय की उत्कृष्ट स्थिति जीवन पर्यन्त कही जाती है। उसे दो तरह से समझा जा सकता है- किसी-किसी जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय पूरे जीवन भर उदय में रहता है अर्थात् उसके मिथ्यात्व जीवन भर नहीं छूटता । जिस भवी जीव को जिस भव में सम्यक्त्व प्राप्त होता है उस भव में उस जीव के सम्यक्त्व पाने के पूर्व की स्थिति अर्थात् जब तक मिथ्यात्व का उदय है उतने समय तक की स्थिति को जीवन पर्यन्त की समझना चाहिये। यदि ऐसा न समझें तब तो फिर कोई भी भवी जीव किसी भी भव में सम्यक्त्व प्राप्त कर ही नहीं सकेगा। वैसे भी मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है। ३. अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार प्रकृतियां ही ऐसी हैं जो क्षय होने के बाद भी पुनः उदय में आ सकती हैं, इसलिये इनके क्षय को दो प्रकार का माना गया है। १. विसमयोजना क्षय तथा २. आत्यन्तिक क्षय । विसमयोजना क्षय में इन चारों का पुनः उदय होता है, जबकि आत्यन्तिक क्षय में इनका पुनः उदय नहीं होता। -अध्यापक, राजकीय माध्यमिक विद्यालय, जाजीवाल कलां (जोधपुर) सम्यक्त्व-ग्रहण सूत्र १५वीं शती में वर्धमानसूरि ने 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ में सम्यक्त्व-ग्रहण करने का पाठ दिया है, जो 'अरिहंतो महदेवो' पाठ से भिन्न है, यथा__ “अह णं भंते ! तम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिक्कमामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ दव्वओ। मिच्छत्तकारणाई पच्चक्खामि सम्मत्तकारणाइं उवसंपज्जामि। नो मे कप्पेइ अज्जप्पभिई अन्नओ तित्थिए वा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थिअ-परिग्गाहियाणि अर्हतचेइआणि वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुब्बि अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइयं वा साइयं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा खित्तओणं इहेव वा अन्नत्थ वा कालओ णं जावज्जीवाए भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि, जावच्छलेण न छलिज्जामि जाव सन्निवाएण नाभिवज्जामि जाव अनेण वा केणइ परिणामवसेण परिणामो मे न परिवड्डइ ताव मे एअं सम्मद्दसणं अन्नत्थ रायाभिओगेणं | बलाभिओगेणं गणाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतराएणं वोसिरामि।" -आचार दिनकर, भाग १, पृ. ४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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