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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन । २१९ का पोषण करे, वह अनन्तानुबन्धी मान कहलाता है। पर द्रव्यों का, उनके गुण-स्वरूप एवं भावों का स्वयं अपने आपको कर्ता, धर्ता एवं हर्त्ता मानकर अहंकार करना भी अनन्तानुबन्धी मान कषाय है। संसार में अटकाने-भटकाने वाला, अपने स्वरूप के प्रति बेभान रखने वाला अहंभाव भी अनन्तानुबन्धी मान का प्रतीक है। आत्म-गुणों एवं रत्नत्रयधारक गुणीजनों के प्रति अत्यन्त विनय एवं प्रीति का भाव होने पर अनन्तानुबन्धी मान को समाप्त किया जा सकता है। ३. अनन्तानुबन्धी माया छल-कपट एवं विश्वासघात करने का ऐसा भाव जो जीव के अनन्त संसार का बन्ध कराये तथा सम्यक्त्व गुण को पैदा ही न होने दे उसे अनन्तानुबन्धी माया कहते हैं। जहां मन, वाणी एवं आत्म भावों में सहजता-सरलता नहीं होती, वक्रता एवं अनेक रूपता होती है, वहां अनन्तानुबन्धी माया होती है। जब । तक यह होती है तब तक प्राणी मात्र के प्रति मित्रता का सच्चा भाव नहीं आ पाता । और यहां तक कि जीव अपने आपका भी सच्चा मित्र नहीं बन पाता है। अपने स्वयं के दुःखों के कारणों को भी वह दूर नहीं कर पाता है। ४. अनन्तानुबन्धी लोभ–जिसके उदय से आत्म-स्वरूप को पाने का उत्साह न होकर पर-पुद्गलों में ही तीव्र आसक्ति एवं उत्साह रहे, उस भाव को अनन्तानुबन्धी लोभ कहा जाता है। सांसारिक भोग-पदार्थों का लाभ तृष्णा के बढ़ते रहने के कारण पदार्थों के लोभ को बढ़ाता रहता है। जीव की रुचि देव, गुरु, धर्म एवं निज स्वरूप में नहीं होकर पर पदार्थों में इसी अनन्तानुबन्धी लोभ के उदय के कारण होती है। ५. मिथ्यात्व मोहनीय–जिसके उदय रहते जीव को सदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर दृढ श्रद्धा नहीं हो पाती, स्व-पर का भेद ज्ञान नहीं हो पाता, सांसारिक भोग-पदार्थों में आसक्ति बनी रहती है, उसे मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। ___ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपम कही जाती है, वह स्थिति इसी मिथ्यात्व मोहनीय की ही होती है, अन्य प्रकृतियों की नहीं। इसका उदय प्रथम गुणस्थान में ही रहता है। इसकी स्थिति अभवी की अपेक्षा अनादि-अनन्त, भवी की अपेक्षा अनादि-सान्त और पडिवाई सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा सादि-सान्त होती है। ६. मिश्रमोहनीय–जिसके उदय से जीव को देव, गुरु, धर्म एवं आत्म-स्वरूप के बारे में मिश्रित श्रद्धान हो अर्थात् सही-गलत स्वरूप का जिसमें स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाता, ऐसी दोलायमान अवस्था मिश्र मोहनीय कही जाती है। इसकी स्थिति जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। मिश्रित एवं अस्थिर परिणामों के कारण इसके उदय में न तो जीव के अगले भव का आयुष्य बन्ध होता है और न ही मरण होता है। यह स्थिति तीसरे गुणस्थान में पायी जाती है। ७. सम्यक्त्व मोहनीय-सम्यक्त्व होते हुए भी चल-मल अगाढ दोष रह जाना अथवा अपने स्वयं के ज्ञानादि गुणों के प्रति, अथवा देव-गुरु-धर्म के प्रति अहंभाव-रागभाव युक्त श्रद्धान होना सम्यक्त्व मोहनीय है। सम्यक्त्व मोहनीय के उदय काल में सम्यग्दर्शन तो रह सकता है, परन्तु परम विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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