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जिनवाणी- विशेषाङ्क
द्रव्य से- मैं एक हूं, असंग हूं, सर्व परभाव से मुक्त हूँ ।
क्षेत्र से असंख्यात निज अवगाहना प्रमाण हूँ ।
काल से - अजर, अमर, शाश्वत हूँ । स्व-पर्याय परिणामी शाश्वत हूँ । शुद्ध चैतन्य मात्र निर्विकल्प हूँ ।
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भाव से
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चित्त के संकल्प - विकल्प से रहित होना, यह महावीर का मार्ग है। अलिप्त भाव में रहना यह विवेकी का कर्त्तव्य है । स्वरूप भास क्यों नहीं
हमारा विवेक जागृत क्यों नहीं होता? चित्त स्थिर क्यों नहीं होता ? आत्मविचार - आत्मा का ज्ञान, प्रतीति और आत्म- ध्यान क्यों नहीं होता ? कारण बताते हुए श्रीमद्जी लिखते हैं
“बाह्य के सुख, इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सुख भ्रान्तिवश सुखस्वरूप भासमान होते हैं । ऐसे इन संसारी प्रसंगों में एवं प्रकारों में जब तक जीव को प्रीतिः रहती है तब तक जीव को अपने स्वरूप का भासमान होना असंभव है और सत्संग का माहात्म्य भी तथारूपता से भासमान होना असंभव है । "
तब क्या करें, तो बोध स्वरूप प्रेरणा देते हैं
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" जब तक यह संसारगत प्रीति असंसारगत प्रीति को प्राप्त न हो जाए तब तक अवश्य ही अप्रमत्त भाव से पुरुषार्थ को स्वीकार करना योग्य है। उपाधि प्रसंग के कारण आत्मा संबंधी विचार अखंड रूप से नहीं हो सकता अथवा गौण रूप से हुआ करता है, ऐसा होने से बहुत काल तक प्रपंच में रहना पड़ता है।..” “चित्त स्थिर नहीं रह सकता... " जब तक आत्मा, आत्मभाव से अन्यथा अर्थात् देहभाव से व्यवहार करेगा, 'मैं' करता हूँ -ऐसी बुद्धि करेगा, मैं ऋद्धि आदि से अधिक हूँ, यों मानेगा,शास्त्र को जालरूप समझेगा, मर्म के लिए मिथ्यामोह करेगा तब तक शान्ति होना दुर्लभ है ।" चेतावनी देते हैं कि 'सर्व की अपेक्षा जिसमें अधिक स्नेह रहा करता है ऐसी यह काया, रोग, जरा आदि से स्वात्मा को ही दुःख रूप हो जाती है तो फिर उससे दूर धनादि जीव को सुखदायी होंगे ऐसा मानने में विचारवान् की बुद्धि क्षोभ को प्राप्त होनी चाहिए । “विचारवान् को देह छूटने संबंधी हर्ष - विषाद योग्य नहीं है । आत्म-परिणाम की विभावना (अबोधता) ही हानि और वही मुख्य मरण है । स्वभाव - सन्मुखता तथा उसकी दृढ़ इच्छा भी हर्ष विषाद को दूर करती है ।'
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अनादि के अज्ञानवश यह जीव अपने को देहरूप, कर्मरूप और रागरूप मानता है । इनसे भिन्न प्रकटतः स्पष्टतः भिन्न सहज आत्म-स्वरूप का भान ही नहीं हो पाता, सम्यक्त्व का स्पर्श ही नहीं हो पाता, ग्रन्थि भेद ही नहीं कर पाता, मिथ्यात्व गला ही नहीं पाता । इस अज्ञान को, मिथ्यात्व को दूर करने और सहज स्वरूप का भासमान कराने के लिए श्रीमद्जी अमूल्य संदेश देते हैं
" मिथ्याग्रह, स्वच्छंदता, प्रमाद और इन्द्रिय विषय की उपेक्षा न की हो तो सत्संग फलवान् नहीं होता अथवा सत्संग में एकनिष्ठा, अपूर्व भक्ति न की हो तो फलवान्
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