________________
सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
१९९
है। विरोधी साधन का दो प्रकार से त्याग हो सकता है। एक उस साधन के प्रसंग की निवृत्ति से दूसरा विचार पूर्वक उसकी तुच्छता समझने से । श्रीमद्जी कहते हैं
“ उस पंचविषयादि साधन की सर्वथा निवृत्ति करने के लिए जीव का बस न चलता हो तब क्रम-क्रम से अंश अंश से उसका त्याग करना योग्य है।.. जीव क्वचित् विचार करे इससे अनादि अभ्यास बल घटना कठिन है, परन्तु दिन-दिन, प्रसंग - प्रसंग में प्रवृत्ति प्रवृत्ति में पुनः पुनः विचार करे तो अनादि अभ्यास का बल घटकर अपूर्व अभ्यास की सिद्धि होकर सुलभ भक्तिमार्ग सिद्ध होता है ।"१६
सम्यक्त्व के संदर्भ में सुलभ- बोधि एवं दुर्लभ बोधि का उल्लेख आगमों में अंकित है । उक्त प्रेरणास्पद वाक्यों का निदिध्यास करने से दुर्लभ से सुलभ बोधिता होकर सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है, ग्रन्थिभेद हो जाता है। ग्रंथिभेद के बिना जीव पहले गुणस्थानक में ही अनन्त काल तक पड़ा रहता है । योगानुयोग से अकाम निर्जरा करता हुआ जीव आगे बढ़े और प्रबल पुरुषार्थ करे, प्रमाद और शिथिलता का त्याग करे तो ही निविड़ ग्रंथि का भेदन होता है। यह जीव पहले गुणस्थानक से निकल कर ग्रंथिभेद तक अनन्त बार आया पर निर्बल होकर वापस लौटा। जीव सोचे कि सम्यक्त्व अनायास आ जाता होगा, ऐसा नहीं है, प्रबल पुरुषार्थ के बिना नहीं
आता ।
विषय-वासना से जिसकी इन्द्रियां आर्त हैं उसे शीतल आत्मसुख आत्मतत्त्व कहां से प्रतीति में आएगा ? इसलिए श्रीमद्जी प्रेरणा करते हैं
" देह से भिन्न स्व- परप्रकाशक परमज्योति स्वरूप यह आत्मा, उसमें निमग्न होवे । हे आर्यजनों ! अन्तर्मुख होकर, स्थिर होकर उस आत्मा में ही रहे तो अनन्त अपार आनन्द का अनुभव करे" सुख कहाँ ?
,,१७
“सुख अंतर में है । बाहर खोजने से नहीं मिलेगा। अंतर का सुख अंतर की समश्रेणी में है, उसमें स्थित होने के लिए बाह्य पदार्थों का विस्मरण कर, आश्चर्य भूल । आभ्यंतर में समश्रेणी रखना अति दुर्लभ है, निमित्ताधीन दृष्टि पुनः पुनः चलित हो जाएगी, चलित न होने देने के लिए अचल उपयोग रख... तेरे दोष से तुझे बंधन है, यह संत की पहली शिक्षा है। तेरा दोष इतना ही है कि अन्य को अपना मानना और अपने आपको भूल जाना ।'
आत्म-स्वरूप
स्व-पर का भेदविज्ञान ही सम्यक्त्व है सदेव, सद्गुरु और सद्धर्म के आलंबन से स्व-स्वरूप का भान होता है। 'स्व' कैसा है, इसके लिए कहा है
“सर्व से सर्वथा मैं भिन्न हूं, एक, केवल शुद्ध चैतन्य स्वरूप, परमोत्कृष्ट, अचिंत्य, सुखस्वरूप, मात्र एकांत शुद्ध अनुभवरूप मैं हूं। वहां विकल्प क्या ? विक्षेष क्या ? भय क्या ? खेद क्या ? दूसरी अवस्था क्या? मैं मात्र निर्विकल्प शुद्ध शुद्ध प्रकृष्ट शुद्ध, परम शांत चैतन्य हूँ। मैं मात्र निर्विकल्प हूँ। मैं निजस्वरूप उपयोग करता हूँ । तन्मय होता हूँ ।'
१९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org