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________________ प्रवचन सम्यग्दर्शन : विनश्वरता का बोध XxX स्व. आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. स्व. आचार्यप्रवर का चिन्तन जीवन को गहनता से स्पर्श करता है । वह व्यवहार एवं निश्चय में संतुलन रखते हुए वीतरागवाणी को सहज सरल भाषा में अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य रखता है । प्रस्तुत प्रवचन में सम्यग्दर्शन का जहां विश्वास अर्थ प्रकट हुआ है वहां पुद्गल - संयोग की विनश्वरता एवं आत्मा की अविनश्वरता का बोध भी सम्यग्दर्शन के रूप में प्रस्तुत हुआ है । - सम्पादक अष्ट-कर्म रूप बेड़ियों को काटकर आत्मा को सिद्ध-बुद्ध-निरंजन एवं निराकार बनाना, उसे अनन्त आनन्द की प्राप्ति का अधिकारी बनाना, यही हमारी साधना का लक्ष्य है । पर वह लक्ष्य तब तक प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक कि हमारी साधना क्रमपूर्वक न चले। इस साधना के क्रम में पहला पाया - पहला सोपान है विश्वास का, जिसे हम 'दर्शन' कहकर भी पुकारते हैं एवं श्रद्धा के नाम से भी अभिहित अथवा सम्बोधित करते हैं । दर्शन पहले अथवा ज्ञान ? यों तो हम कर्मों का नामोल्लेख करते हैं, तो पहले ज्ञानावरणीय का नाम लेते हैं, और गुणों का भी जब क्रम वर्णन करते हैं तो अधिकतर श्वेताम्बर - परम्परा में 'ज्ञान- दर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः' कह कर इस क्रम में ज्ञान को प्रथम स्थान देते हैं । लेकिन साथ ही दूसरे पक्ष में, दूसरी परम्परा में दर्शन - ज्ञान - चारित्र और तप - इस क्रम को भी माना गया है। दोनों तरीके, दोनों क्रम, दोनों परम्पराएं और पद्धतियां शास्त्रसम्मत हैं । दोनों पद्धतियां एवं मान्यताएं सही हैं । इन दोनों में से किसी को भी गलत कहा जा सके, ऐसा नहीं है। लेकिन दोनों बातों को कहने का जो आशय है, वह भिन्न-भिन्न है । 'दर्शन' इसलिये पहले रखा कि जब तक दृष्टि अथवा दर्शन शुद्ध नहीं होगा अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा तब तक का ज्ञान भी सम्यग् नहीं कहला सकेगा । ज्ञान का अर्थ है जानना, किसी वस्तु अथवा पदार्थ को जानना । अब यह जानना अथवा ज्ञान, वस्तुतः सम्यग् कब कहलाएगा, आपका हमारा जानना, समझना सही ज्ञान कब कहलाएगा? तभी, जब कि दर्शन शुद्ध होगा। इस दृष्टि से दर्शन को पहले रखा है। लेकिन व्यवहार में किसी की दृष्टि या दर्शन भी कब सुधरता है ? समझ में सम्यग् परिवर्तन कब आता है ? तब, जब कि ज्ञान मिलता है। ज्ञान मिलता है तो दर्शन विशुद्ध होता है । इसलिये व्यवहार दृष्टि से पहले ज्ञान को रखा, तदनन्तर दर्शन को । निश्चय दृष्टि से पहले दर्शन को रखा और दर्शन के पश्चात् ज्ञान को । इस दृष्टि से कहा गया कि दर्शन पहले है । धर्म के भव्य भवन की आधारशिला - दर्शन दर्शन की नींव पर धर्म का महल ठहरता है। मकान जैसे नींव पर या पाये पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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