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________________ (क्रमश:) जिज्ञासा और समाधान जिज्ञासा ७५-अनादि मिथ्यात्वी को सर्वप्रथम समकित कोनसी तथा किस गति में प्राप्त होती है ? समाधान-समकित की प्राप्ति के विषय में मान्यताओं में कुछ भेद है । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि चदुर्गाद-मिच्छो सण्णी पुण्णा गब्भज-विसुद्ध-सागारो। पदमुवसमं स गिणहदि पंचमवरद्धि चरिमम्हि ।। खय-उवसमिय वइसोही देसणापाउग्गकरणलद्धीय ।।-लब्धिसार, गाथा २-३ अर्थात् चारों गति के मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, पर्याप्त, गर्भज जीव क्षयोपशम, विद्धि, देशना, प्रायोग्य व करण ये लब्धियां कर विशुद्ध लेश्या व साकारोपयोग में सर्वप्रथम उपशम समकित को प्राप्त करते हैं। कषायपाहुड में भी इसी प्रकार का वर्णन है। साथ ही वहां गाथा १०५ में प्रथमोपशम से नियमत: गिरने की बात कही गई है, द्वितीय उपशम से क्षयोपशम आदि की प्राप्ति की भजना है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार द्वितीय कर्मग्रन्थ में गणस्थानों की विवेचना में तथा छटे कर्मग्रन्थ की ६२वीं गाथा की विवेचना में कर्मग्रन्थकारों के मत का विस्तार से वर्णन किया गया है। विशेषावश्यकभाष्य की गाथा ५३० की टीका व वृहत्कल्पभाष्य गाथा ९५ व १२० आदि में भी कर्मग्रन्थकारों के मत का उल्लेख किया गया है। प्राप्ति के अधिकारी का वर्णन तो प्रायः समान है और प्रथम बार उपशम समकित प्राप्ति का ही उल्लेख है, किन्तु उस जीव के गिरने की नियमा नहीं भजना है अर्थात् कोई जीव उपशम से सीधा क्षयोपशम समकित प्राप्त कर सकता है। इसी भाषा में सैद्धान्तिक मत का विस्तृत विवेचन किथा गया है। वहां उल्लेख है कि प्रथम बार जीव को उपशम या क्षयोपशम समकित प्राप्त हो सकती है। अकृतत्रिपुञ्ज उपशमी . जीव निश्चय ही नीचे गिरता है जबकि क्षयोपशम वाला कोई जीव बिना गिरे भी मोक्ष में जा सकता है। जिज्ञासा ७६-उपशम समकित वाला जीव क्या सीधा क्षायिक समकित को प्राप्त कर सकता है? समाधान नहीं, उपशम समकित से सीधी क्षायिक समकित नहीं आ सकती है। क्षायिक समकित क्षयोपशम समकित से ही प्राप्त होती है। उपशम समकित वाला जीव क्षयोपशम समकित को प्राप्त करके क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। जिज्ञासा ७७–क्षायिक समकित कब, कैसे किनके सान्निध्य में किन जीवों को प्राप्ति होती है ? समाधान–पांचवे कर्मग्रन्थ की गाथा ९९ एवं १०० तथा विशेषावश्यक भाष्य गाथा १३२१-२३ में इसका विवेचन किया गया है। संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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