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________________ १७२ जिनवाणी-विशेषाङ्क का आस्रव व बंध अवश्य होता है। अतः पुण्य के आस्रव का निरोध व विरोध करना पाप के आस्रव व बंध का आह्वान व आमंत्रण करना है। अतः पुण्य के आस्रव के निरोध को मुक्ति का मार्ग मानना पाप के आस्रव के आगमन को मुक्ति का मार्ग मानना है जो घोर मिथ्यात्व है। तृतीय, दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों से पुण्य का जितना उपार्जन होता है उससे अनंतगुणा पुण्य के अनुभाग का सर्जन संयम, त्याग, तप व श्रेणीकरण की साधना से होने वाली आत्म-पवित्रता से होता है । अतः पुण्य को संसार-भ्रमण का कारण मानने वालों को संयम, त्याग, तप, श्रेणीकरण आदि मुक्ति-प्राप्ति की साधनाओं को भी संसार-भ्रमण का कारण मानना पड़ेगा जो घोर मिथ्यात्व है। __ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप की साधनाओं को दुःख रूप मानना, सुख में बाधक मानना, सन्मार्ग को उन्मार्ग मानने रूप मिथ्यात्व है। विषयभोग समस्त दुःखों के व संसार-भ्रमण के कारण हैं, इन्हें दुःख से मुक्ति पाने का मार्ग मानना उन्मार्ग को सन्मार्ग मामने रूप मिथ्यात्व है। उपर्युक्त दोनों मिथ्यात्व साधना से संबंधित हैं। (५-६) अजीव को जीव तथा जीव को अजीव श्रद्धना - अपने को देह मानना जीव को अजीव मानने रूप मिथ्यात्व है और देह के अस्तित्व को अपना अस्तित्व मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है। ये दोनों मिथ्यात्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। देह पौद्गलिक है, हाड-मास-रक्त से बनी हुई है, अंत में मिट्टी में मिलकर मिट्टी बन जाने वाली है। मिट्टी और देह दोनों एक ही जाति के हैं। अतः अपने को देह मानना अपने को मिट्टी मानना है, जीव को अजीव मानना है; जो विवेक के विरुद्ध है। आत्मा यदि देह होती तो देह के अंग हाथ-पैर आदि अंश कट जाने पर आत्मा में भी उतने ही अंशों में कमी हो जाती, परन्तु ऐसा नहीं होता है। देह के अंग भंग होने पर भी आत्मा के अंश का भंग नहीं होता, आत्मा अखण्ड रहती है अतः यह सिद्ध होता है कि देह आत्मा या जीव नहीं है। देह के नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता है। अतः देह के अस्तित्व को जीवन व जीव मान लेना भूल है, मिथ्यात्व है। अपने को देह मान लेने से ही विषय-भोगों की इच्छा, राग-द्वेष, कामना, ममता, माया, लोभ आदि समस्त दोषों की एवं भूख-प्यास, भय, चिन्ता, खिन्नता, रोग-शोक आदि समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है अर्थात् अपने को देह मानना ही समस्त दोषों व दुःखों का मूल है। अतः अपने को देह मानना भयंकर मिथ्यात्व है। ये दोनों मिथ्यात्व आत्मा के स्वरूप से संबंधित हैं। (७-८) असाधु को साधु और साधु को असाधु श्रद्धना इन्द्रियों के विषय-भोग विकार हैं, दोष हैं एवं समस्त दुःखों की जड़ हैं। जो इन विषय-भोगों में गृद्ध है, आबद्ध है, भोग सामग्री बढ़ाने में, परिग्रह की वृद्धि करने में रत है, परिग्रही है, भोगी है, मायाचारी है, नशे का सेवन करने वाला है, व्यभिचारी है, वह असाधु है। उस भोगी को, परिग्रही को सुखी व श्रेष्ठ मानना, उसके जीवन को सार्थक व सफल मानना असाधु को साधु मानने रूप मिथ्यात्व है। और जिसने For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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