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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
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एवं दुःख का कारण मानना धर्म को अधर्म मानना है । यह मिथ्यात्व जीव के स्वभाव-विभाव से संबंधित है ।
(३-४) उन्मार्ग को मार्ग और मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना
विषय-कषाय जनित भोगों के सुखों की प्राप्ति के लक्ष्य से जो भी कार्य किए जाएं वे उन्मार्ग हैं। इस दृष्टि से भोगों की प्राप्ति के लिए किए गए आरंभ - परिग्रह, हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि कार्य तो उन्मार्ग हैं ही, इन्हें जीवन मानना उन्मार्ग को मार्ग मानना है। लेकिन जो भक्ति भजन, संयम, त्याग, तप, जप आदि साधनाएं अथवा क्रियाकांड संपत्ति, संतति, सत्कार, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा पाने के लोभ से या स्वर्ग के भोगों के सुख पाने के प्रलोभन के लक्ष्य से किए जाते हैं वे भोगों का पोषण, संरक्षण, संवर्धन करने वाले होने से साधनाओं के भेष में सन्मार्ग के रूप में घोर असाधन व उन्मार्ग हैं । कारण कि हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोष या दुष्प्रवृत्तियां दोष के रूप में आती हैं, उन्हें दूर करने की प्रेरणा कभी भी जग सकती है, क्योंकि दोषी कहलाना या रहना कोई भी अच्छा नहीं मानता है । परन्तु जो दोष गुण व धर्म के रूप में आते हैं उन्हें व्यक्ति हितकारी मानकर पुष्ट करने में अपना कल्याण समझता है, उसे उन्हें त्यागने का विचार ही पैदा नहीं होता है और वह व्यक्ति अपने को साधन - पथ पर, सन्मार्ग पर चलने का मिथ्या विश्वास व झूठा संतोष देता रहता है। परन्तु जब साधनाएं राग-द्वेष, विषय- कषाय के सुखों के त्याग के लक्ष्य से की जाती हैं तो सन्मार्ग हो जाती हैं। आशय यह है कि विषय विकारों एवं भोगों के त्याग के लक्ष्य से की गई प्रवृत्ति - निवृत्ति सन्मार्ग है और विषय - भोगों की प्राप्ति के लिए की गई प्रवृत्ति - निवृत्ति ( त्याग - तप ) उन्मार्ग है । उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना मिथ्यात्व है।
चरस, अफीम, गांजा, भांग, सुलफा, ड्रग्स, स्मैक, हेरोइन आदि के नशे को सुख का साधन मानना, संभोग को समाधि का हेतु मानना, अतिभोग को मुक्ति का मार्ग मानना, प्रभावना के नाम पर सम्मान, सत्कार, पुरस्कार आदि से अपने मान-लोभ आदि कषायों का पोषण करना, सतीत्व के नाम पर जीवित स्त्रियों को जलाना, मनुष्य-पशु-पक्षी की बलि को, मद्य-मांस-मैथुन सेवन को, परधर्मावलंबियों की हत्या को साधना मानना, उन्मार्ग को सन्मार्ग मानने रूप मिथ्यात्व है ।
करुणा, दया, दान, वैयावृत्त्य, सेवा, परोपकार, नमस्कार, मृदुता, मित्रता आदि समस्त सद्प्रवृत्तियों को पुण्य-बंध का हेतु कहकर इन्हें संसार परिभ्रमण का कारण मानना सन्मार्ग को उन्मार्ग मानने रूप मिथ्यात्व है। कारण कि प्रथम तो पुण्य कर्म की समस्त ४२ प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से अघाती हैं अर्थात् इनसे किसी भी जीव के किसी भी गुण का कभी भी अंश मात्र भी घात नहीं होता है । अतः ये अकल्याणकारी हैं ही नहीं । जो अकल्याणकारी नहीं हैं उन्हें अकल्याणकारी मानना अथवा अघाती को घाती कर्म मानना मिथ्यात्व है। द्वितीय, कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि पुण्य का उत्कर्ष उत्कृष्ट या परिपूर्ण होने के पूर्व यदि सातावेदनीय, उच्चगोत्र, आदेय, यशकीर्ति, मनुष्य- देवगति आदि पुण्य-प्रकृतियों का आस्रव व बंध नहीं होता है तो असातावेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्त्ति, नरक - तिर्यंचगति आदि पाप प्रकृतियों
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