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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन १३७ प्रकार से जान लेता है और माध्यस्थ भाव को धारण कर लेता है, अर्थात् निश्चय-व्यवहार में रागद्वेषरूप पक्ष नहीं करता, वह श्रोता जिनदेव की देशना का पूरा फल पाता है। इस आर्षकथन से स्पष्ट हो जाता है कि नय-पक्षपाती जीव के देशमा भी समीचीन नहीं है तथा इसी कारण देशना से मिलने वाला जो फल है वह भी उसे नहीं प्राप्त होता है । वस्तुतः एकान्त दृष्टिवाला देशनालब्धि से भी असम्पन्न है। जयधवला में कहा है-ते उण ण दिवसमओ विहयइ सच्चे व अलीए वा।१८ अर्थात् अनेकान्त रूप समय (द्वादशांग या जिनवाणी) के ज्ञाता पुरुष, 'यह नय सच्चा है' और 'यह नय झूठा है', इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं। अतः नय-पक्षपाती जीव अज्ञानी-हठी होने के कारण देशना का फल प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। __ अधस्तन नरकों में देशना-लब्धि नहीं होती। तीसरे नरक से नीचे देव भी नहीं जा सकते । अतः चतुर्थ अंजना आदि नरकों में उन-उन जीवों द्वारा अपने-अपने पूर्व भव में गृहीत देशना (उपदेश) का स्मरण ही देशना-लब्धि का काम कर जाता है। इतना विशेष है कि उनके जो सम्यक्त्व होगा वह निसर्गज कहलायेगा। प्रायोग्य लब्धि सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग का घात करके उन्हें अन्तःकोटाकोटि स्थिति में तथा द्विस्थानिक अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं । २० प्रायोग्य लब्धि के प्रथम क्षण से ही पूर्व स्थितिबन्ध के संख्यातवें भाग मात्र अन्त:कोटा-कोटि सागर प्रमाण सात कर्मों (आयु बिना) का स्थिति बन्ध होता है । अशुभ कर्मों का प्रतिसमय अनंतगुणा घटता द्विस्थानिक रस बँधता है। शुभ कर्मों का प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ता चतुःस्थानिक रस बँधता है। प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होता है। उदीरणा एक स्थिति की होती है। अशुभ कर्मों का विस्थानिक उदय तथा शुभ कर्मों का चतुःस्थानिक रस उदित होता है-भोगा जाता है। स्थिति, अनुभाग व प्रदेश सत्त्व अजघन्य-अनुत्कृष्ट होता है । इस लब्धि में स्थित जीव के ३४ बन्धापसरण होते हैं जिनके द्वारा ४६ प्रकृतियों का संवर (बन्धव्युच्छेद) होता है। इस लब्धि के प्रथम समय भावी अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण स्थिति बन्ध से अन्तर्मुहूर्त बाद पल्योपम के संख्यातवें भाग हीन स्थितिबन्ध होता है, जो अन्तर्मुहूर्त तक समानरूप से होता रहता है। तत्पश्चात् उससे भी पल्योषम के संख्यातवें भागहीन अन्य स्थिति बन्ध प्रारम्भ होता है, जो अन्तर्मुहूर्त तक होता रहता है। इस प्रकार प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में पल्य के संख्यातवें भाग स्थिति बन्ध घटते-घटते जब कुल मिलाकर पृथक्त्व (७ से ८) सौ सागर प्रमाण स्थितिबन्ध घट जाता है तब एक प्रकृति बन्धापसरण होता है। पुनरपि उक्त विधि से पृथक्त्व सौ सागर स्थिति बन्ध घटने पर दूसरा प्रकृतिबन्धापसरण होता है। ऐसे कुल ३४ बन्धापसरण होते हैं। गणित करने पर इस प्रायोग्य लब्धि के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण-काल में संख्यात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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