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जिनवाणी-विशेषाङ्क विद्यानंदी ने श्लोकवार्तिकलंकार नामक टीका ग्रंथों की रचना की। अनेक शतकों बाद श्री श्रुतसागर ने तत्त्वार्थवृत्ति और २०वीं शती में पंडित सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र विवेचन भी इसी पर लिखे। मूल ग्रन्थकर्ता का काल ‘वीरात् ४७१ वर्ष' यानी वि.सं. के प्रारंभ के लगभग माना जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी परवर्ती ग्रंथ-परंपरा के बारे में उपर्युक्त जानकारी के पश्चात्, उसमें 'सम्यग्दर्शन' की परिकल्पना का विचार-विवेचन करने हेतु हमें इस लोकप्रिय ग्रंथ के उन सूत्रों का गहराई से अध्ययन करना होगा, जिनमें यह शब्द (सम्यग्दर्शन) या इसकी ओर दिशा निर्देश प्राप्त होता है। इनमें से सर्वप्रथम हैतत्त्वार्थसूत्र, १.१, जहां ग्रंथारम्भ में ही सम्यग्दर्शन शब्द प्रयुक्त हुआ है और संपूर्ण सूत्र का पाठ इस प्रकार है : “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।” इस सूत्र पर रचित भाष्य एवं सभी टीकाओं को ध्यान से पढ़ें तो ज्ञात होता है कि यहां सम्यग्दर्शन शब्द में मौजूद विशेषण ‘सम्यक्' इतरेतर द्वन्द्व समास के प्रत्येक पद के साथ (यानी ज्ञान
और चारित्र के साथ भी) संबद्ध होता है। अतः सूत्र का प्रारंभिक फलितार्थ है : “सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों सम्मिलित रूप में (आत्मा के) मोक्ष का मार्ग हैं (और बन सकते है)।”
मोक्षमार्ग के तीनों अंगों के साथ संलग्न इस 'सम्यक्' विशेषण का अर्थ सबसे पहले जान लेना आवश्यक है। इस संदर्भ में तत्त्वार्थसूत्रकार के स्वोपज्ञ माने गए तत्त्वार्थभाष्य का कथन है : (पृ. २५.१) 'सम्यगिति प्रशंसाओं निपातः, समञ्चतेर्वा भावः।” करीब-करीब इसी बात को दूसरे शब्दों में पूज्यपाद देवनंदी का यह कथन प्रकट करता है: 'सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो, व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः क्वौ समञ्चतीति सम्यगिति। अस्यार्थः प्रशंसा (प्रकृते ग्रंथे) " किन्तु दोनों विधानों में साम्य होते हुए भी कुछ महत्त्वपर्ण भेद हैं। साम्य यह है कि दोनों में सम्यक् विशेषण को या तो एक निपात यानी अव्युत्पन्न शब्द माना गया है या फिर वैकल्पिक रूप में व्युत्पन्न, और दूसरे विकल्प में उसकी व्युत्पत्ति ‘सम्' उपसर्ग लगे अञ्च् धातु (को पूज्यपाद के कहे मुताबिक 'क्वि' अर्थात् 'क्विप्' प्रत्यय लगने) से होती है और भेद यह है कि पूज्यपाद दोनों ही रूपों में सम्यक् विशेषण को 'प्रशंसा' का अर्थ जताने वाला मानते हैं, ‘(सत्य हकीकत (तत्त्व)' या 'इष्ट' अर्थ जताने वाला नहीं, जबकि तत्त्वार्थभाष्य में केवल निपात रूप अव्यय 'सम्यक्' को प्रशंसा का अभिधायक माना गया है और व्युत्पन्न ‘सम्यक्’ को ‘सम् + अञ्च्' का भाव प्रकट करने वाला..। . वह भाव क्या है, इसका स्पष्टीकरण हमें तत्त्वार्थभाष्य पर लिखी गई आचार्य सिद्धसेन की टीका से मिलता है । (बम्बई १९२६, पृ. ३०) 'समञ्चति गच्छति व्याप्नोनि सर्वान् द्रव्यभावानिति सम्यक् (दर्शनम्) । एवमेते जीवादयोऽर्थाः यथा नयसामग्र्या जैनैराख्यायन्ते... कथञ्चित्सन्ति कथञ्चिन्न सन्ति। कथञ्चिन्नित्याः कथञ्चिदेवानित्याः द्रव्यपर्यायनयद्वयप्रपञ्चापेक्षया...। एवं च तत्र यदा दृष्टिः प्रवर्तते तदा सम्यगिति कथ्यते।' तात्पर्य, “जीवादि पदार्थ द्रव्यनयकी अपेक्षा से सत् नित्य आदि हैं, पर उन्हीं के पर्याय रूप असत्, अनित्य आदि हैं, ऐसे जैनोक्त यथार्थरूप में जो दृष्टि सभी भावरूप द्रव्यों में व्याप्त (या व्यापृत) होती है, वही 'सम्यक् दर्शन' है । सिद्धसेन यहां
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