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________________ ११० जिनवाणी-विशेषाङ्क गया है। इस भूमिका पर जीव के परिणाम इतने निर्मल हो जाते हैं कि वह अपूर्व बल-सामर्थ्य प्रकट कर शेष रहे मूंग परिमाण कर्म दलिकों को बजरीवत् चूर्ण करता हुआ नियम से दर्शन सप्तक प्रकृतियों का (अनंतानुबंधी चतुष्क व दर्शन त्रिक) का उपशम, क्षयोपशम या क्षय करते हुए ग्रंथिभेद करता है जिससे आत्मा के अत्यन्त निर्मल विशुद्ध भाव प्रगट होते हैं और अंतर में तत्त्वसंवेदन से अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है । इस सम्यक्त्व के स्पर्श करते ही जीव अनंत संसारी से परीत संसारी हो जाता है। उसके भव भी सीमित हो जाते हैं। किन्तु जिन जीवों की भव स्थिति देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन काल की शेष होती है, उन्हें तो सम्यक्त्व स्पर्श करने के बाद भी नियम से पुनः मिथ्यात्वी हो अनंत भवों तक संसार में जन्म-मरण करना पड़ता है। उपर्युक्त पांच लब्धियों में काल व देशना लब्धि सम्यग्दर्शन की उपलब्धि में बहिरंग कारण व शेष तीन लब्धियां अंतरंग कारण होती हैं । अंत में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कितनी दुर्लभ है, इसे व्यक्त करने वाला स्तवन दिया जा रहा है जो तत्त्व दृष्टि से चिंतनीय है समकित नहीं लियो रे, यो तो रुलयो चतुर्गति मांहि ।।टेर ॥ त्रस स्थावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो। तीन काल सामायिक की, पण शुद्ध उपयोग न साध्यो ॥१॥ . झूठ बोलने को व्रत लीनो, चोरी को भी त्यागी। व्यवहारादिक में कुशल भयो, पर अन्तर दृष्टि न जागी ॥२॥ निज-पर नारी त्याग न करके, ब्रह्मचर्य व्रत लीधो। स्वर्गादिक या को फल पाये, निज कारज नहीं सीधो ॥३॥ ऊर्ध्व भुजा करी ऊंधो लटके भस्मी रमाय धूम गटके। जटा जूट सिर मुंडे झूठो, श्रद्धा बिन भव भटके ॥४॥ द्रव्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्यलिंग धर लीनो। 'देवीचन्द' कहे इण विधि तो हम, बहुत बार कर लीनो.॥५॥ सन्दर्भ १. आत्म-तत्त्व विचार' से २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ६५० एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन अ. ६ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, ६५० ४. श्रीमद् राजचन्द्र के पदों से ५. समर्थ समाधान, भाग १, पृ. २७ ६. आचार्य जिनसेन के मतानुसार - -डागा सदन, संघपुरा, टोंक (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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