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________________ ८४................... जिनवाणी-विशेषाङ्क ४. भगवतीसूत्र शतक २५ उद्दे. ६-७ में चारित्र वालों की और निर्ग्रन्थों की उत्कृष्ट संख्या अनेक हजार करोड़ कही है। यहां कही संख्या वालों में छट्ठा सातवां आदि गुणस्थान होता है। अतः यह सुसाधुओं की संख्या समझनी चाहिये। ५. गुणस्थान का थोकड़ा-क्रिया द्वार-पांचवें गुणस्थान में तीन क्रियाएं हैं –१. आरंभिकी २. पारिग्रहिकी ३. माया प्रत्ययिकी। छठे गुणस्थान में दो क्रियाएं लगती हैं-१. आरंभिकी, २. मायाप्रत्ययिकी। अर्थात् पारिग्रहिकी क्रिया छटे गुणस्थान में नहीं रहती हैं। एक से पांच गुणस्थान तक ही पारिग्रहिकी क्रिया कही गई है। ६. एग एव चरे लाढे, अभिभ्य परीसहे। गामे का नगरे वावि निगमे वा रायहाणिये। असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्येसु, अणिएओ परिव्वए॥ ७. प्रदेशीराजा-'दब्भसंथारगं दुरुहित्ता प्रस्थाभिमुहे सपलियंकणिसण्णे करयलपरिग्गहियं सिरसावंतं अंजलिं मत्थए कट्ट एवं वयासी- णमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं। णमोत्थुणं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोवएसगस्स धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए । पासउ मे भगवं तत्थगए इह गयं त्ति कट्ट वन्दइ णमंसइ। __ अम्बडसंन्यासी के शिष्य एवं वयासी-णमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, णमोत्थुणं अम्बडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स। पुट्विं णं अम्हे अम्बडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलए.. पच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो... । तीर्थंकर भगवान महावीर तो आनंद आदि सभी श्रमणोपासकों के लिए आराध्य देव रूप देवाधिदेव होते हैं, फिर भी उनसे प्रथम बोध पाया जाने के कारण आगम में धर्माचार्य धर्मोपदेशक कहा गया है। द्वारा श्री स्थानकवासी जैन समाज (पूर्व विभाग) भारत सोसायटी, पो. सुरेन्द्रनगर-३६३००१ (गुजरात) सम्यक्त्व सप्तति आचार्य हरिभद्र (७००-७७० ई) के द्वारा रचित 'सम्यक्त्व-सप्तति' ग्रन्थ में सम्यक्त्व के सड़सठ बोलों का वर्णन है । हरिभद्र सूरि के इस ग्रन्थ में कुल ७० गाथाएं है । सम्यक्त्व की विशुद्धि के लिए सड़सठ भेदों का कथन करते हुए कहा गया चउसद्दहण तिलिंग, दसविणयतिसुद्धि पंचगय दोसं। अट्ठपभावणभूसणलक्खणपंचविहसंजुत्तं ॥ छविह-जयणागारं छभावना भावियं च छट्ठाण । छह सत्तसदि-लक्खण भेयविसद्धच सम्मत्तं ।।-सम्यक्त्व सप्तति ५-६ चार श्रद्धान, तीन लिङ्ग, दश विनय, तीन शुद्धि, पाँच दूषण, आठ प्रभावना, पाँच भूषण, पाँच लक्षण, छह यतना,छह आगार,छह भावना और छह स्थान-इन सड़सठ भेदों से विशुद्ध सम्यक्त्व होता है । हरिभद्र सूरि के संबोध प्रकरण' में भी इन्हीं सड़सठ भेदों का वर्णन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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