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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय - विवेचन ८३ श्रावक व्रत स्वीकार किये, समकित प्रतिज्ञा स्वीकार की उसमें सभी श्रमण-निर्ग्रन्थों को गुरु समझ कर सम्मान देने आदि का संकल्प किया, किसी भी व्यक्ति के नाम से गुरु आम्नाय नहीं की, समस्त सुसाधुओं को गुरु मानने की ही उनकी समझ थी । आगम में जो व्यक्तिगत नाम आया है उसमें भी जीवन के अंतिम क्षणों में संथारे के समय में अपने अत्यंत स्मरणीय उपकारी को 'धर्मगुरु धर्माचार्य' के नाम से स्मरण कर नमस्कार किया गया है। धर्मगुरु, धर्माचार्य रूप अंतिम उपकारी के स्मरण के आगम-पाठ में (१) अरिहंत महावीर देव भी हैं (२) केशी श्रमण मुनि भी हैं और (३) अंबड जी श्रमणोपासक भी हैं। इन्हें विशिष्ट उपकारी होने से जीवन के महत्त्वपूर्ण अंतिम क्षणों में 'धर्मगुरु धर्माचार्य' के विशेषण द्वारा स्मरण किया है 1 (१७-१८) इस प्रकार गुरु आम्नाय का, आगम- पाठों का और सम्यक्त्व का सही स्वरूप समझ कर अपनी समझ और श्रद्धान को शुद्ध बनाना चाहिये । कभी किसी के विशिष्ट धार्मिक जीवन में, परिवर्तन में विशिष्ट व्यक्ति का उपकार - संयोग हो सकता है । किन्तु सामान्यतया वर्तमान जैन जगत् में जैनियों के धार्मिक जीवन - विकास में अनेक साधु-साध्वियों का, गांव के ज्ञानी या प्रमुख श्रावकों का एवं अनेक धर्माध्यापकों का तथा साथ ही अपने माता-पिता आदि पारिवारिक जनों का भी महत्त्वपूर्ण भाग होता है । इसलिये किसी प्रमुख उपकारी का यथा समय स्मरण कर उपकार स्वीकार किया जा सकता है । किन्तु समकित प्रतिज्ञा के आराध्य गुरु पद में तो श्रमण योग्य आगमगुण युक्त समस्त सुसाधुओं का ही स्वीकार होना चाहिये । क्योंकि आगम में 'सुसाहुणो गुरुणो' बहुवचन रूप प्रयुक्त हुआ है। (१९) उपसंहार करते हुए काव्य में बताया गया है कि इस प्रकार दुर्लभ समकित संबंधी आगम-सम्मत सही तत्त्वों को समझकर जो उक्त निर्देशों को हृदय में धारण करेगा, समकित की शुद्ध पालना - धारणा रखेगा, वह संसार- भ्रमण से मुक्त हो सकेगा। क्योंकि समकित ( समझ - मान्यता) यदि सही है तो समस्त की गई क्रिया सफल है। जो अपनी समकित को शुद्ध, सुरक्षित जीवनभर रख लेता है आयुबंध भी समकित युक्त अवस्था में कर लेता है, वह फिर कभी भी नरक - तिर्यंच गति में नहीं जाता है । उत्कृष्ट १५ भवों से ही संसार - भ्रमण से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है । Jain Education International टिप्पण १. जीवा जीवा य बन्धो य, पुण्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संति ए तहिया नव ।। तहियाणं तु भावाणं, सबभावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्सु, सम्पत्तं तं वियाहियं । उत्तरा. अ. २८ गा. १४-१५ २. अरिहंतो मह देवो, जावज्जीए सुसाहुणो गुरुणो । जिण पण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ।। आव. अ. ४ ३. परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठ परमत्थसेवणा वावि । वावण्ण कुदंसणवज्जणा, इअ सम्मत्त सद्दहणा || उत्तरा. अ. २८ एवं आव. अ. ४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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