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की प्रशंसा करते हुए कहने लगे- वर्धमान कुमार बालक होते हुए भी बडे पराक्रमी, विनयी और बुद्धिमान है । इन्द्र देव दानव कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता ! एक देव को इन्द्र की इस बात पर विश्वास नहीं हुआ बह वर्धमान कुमार के बल साहस एवं धैर्य की परीक्षा करने की इच्छा से जहाँ वर्धमान कुमार अपने साथियों के साथ खेल रहे थे वहाँ आया । और भयंकर सर्प का रूप धारण करके पीपल वृक्ष से लिपट गया । उस समय वर्धमान कुमार साथियों के साथ पीपल पर चढे हुए थे । फूत्कार करते हुए भयानक सर्प को देखकर सभी बालक भय से कांपने लगे और बचाओ ! बचाओ !! की आवाज से रोने लगे । किन्तु ,वर्धमान कुमार' जरा भी भयभीत नहीं हुए। वें धैर्य पूर्वक सर्प की ओर बढे उसे हाथ से खींचकर दूर फेंक दिया। ____ पुनः खेल प्रारंभ हो गया वे तिदूसक' नामका खेल खेलने लगे । इसमें यह नियम था कि अमुक वृक्ष को लक्ष्य करके लड़के दौड़ें । जो लड़का सबसे पहले उस वृक्ष को छू ले वह विजयी और शेष पराजित मानेजायंगे । इस बार बह देव बालक के रूप में उनके साथ खेल खेलने लगा । क्षण भर में बालक रूपधारी देव अपने हरीफ़ वर्धमान कुमार से हार गया । और शर्त के अनुसार वर्धमान कुमार को अपनी पीठ पर लेकर दौड़ने लगा । वह दौड़ता जाता था और अपना शरीर बढाता जाता था । क्षण भर में उसने अपना शरीर सात ताड जितना उंचा बना लिया और बडा भयंकर बन गया । वर्धमान को दैवी माया समझते देर न लगी उन्होंने जोर से उसकी पीठ पर एक घुसा जमा दिया । श्रीवर्धमान कां वज्रमय प्रहार देव सह नहीं सका बह तुरत नीचे बैठ गया । अब देव को विश्वास हो गया कि वर्धमान कुमार को पराजित करना उसकी शक्ति के बाहर है । वह असली रूप में प्रकट होकर बोला । हे वर्धमान ! सचमुच ही तुम 'महावीर' हो ? । सौधर्मेन्द्र ने आपकी जैसी प्रशंसा की है वैसे ही आप हैं । कुमार ! मैं तुम्हारा परीक्षक बन कर आया था और प्रशंशक बनकर जाता हूं । देव चला गया किन्तु वर्धमान कुमार का 'महावीर' विशेषण सदा के लिये अमर बनगया । महावीर का लेखनशाला में प्रवेश
भगवान श्रीमहावीर के आठवर्ष से कुछ अधिक समय होने पर उनके माता पिता ने शुभ मुहूर्त देखकर सुन्दर वस्त्र अलंकार धारण कराके हाथी पर बैठाकर भगवान श्रीमहावीर को पाठशाला में भेजा । अध्यापक को भेट देने के लिये अनेक उपहार और छात्रों को बाँटने के लिये नाना प्रकार की सुंदर वस्तुएँ भेजी गई । जब भगवान पाठशाला में पहुंचे तो अध्यापक ने उन्हें सम्मान पूर्वक आसन पर बिठलाया ।
उस समय इन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ । अवधि ज्ञान से उसने भगवान को पाठशाला में बैठा हआ देखा । इन्द्र उसी क्षण वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर पाठशाला में उपस्थित हुआ । कुमार महावीर को प्रणाम कर वह व्याकरण विषयक विविध प्रश्न कुमार महावीर से पुछने लगा-भगवान महावीर आलौकिक ज्ञानी तो थे ही उन्होंने सुन्दर ढंग से वृद्ध ब्राह्मण के प्रश्नों का उत्तर दिगा।
कुमार के विद्वत्तापूर्ण उत्तरों से पाठशाला का अध्यापक चकित हो गया । वह अपने शंकास्थानों को . याद कर कुमार महावीर से पूछने लगा। महावीर ने अध्यापक के सभी प्रश्नों का समाधान कर दिया। महावीर की इस अलौकिक बुद्धि और विद्वत्ता से अध्यापक गण दंग रह गया । तब ब्राह्मणवेश धारो इन्द्र ने अध्यापक से कहा पण्डित ! यह बालक कोई साधारण छात्र नहीं है। ये सकल शास्त्र पारंगत भगवान महावीर है ।” अध्यापक गण अपने सामने अलौकिक बालक को देख चकित हो गया । उसने भगवान को प्रणाम किया । इन्द्र ने भी अपना असली रूप प्रकट किया और भगवान को प्रणाम कर अपने स्थान पर चला गया । महावीर के मुख से निकले हुए वचन ऐन्द्र' व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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