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________________ ४० १४-भगवानश्री अनन्तनाथ प्रभु धातकीखण्ड द्वीप के प्राग विदेह क्षेत्र में ऐरावत् नामक विजय में अरिष्टा नाम की एक नगरी थी । वहाँ पद्मरथ नामके राजा राज्ज करते थे। वे बड़े धर्मात्मा एवं न्यायप्रिय थे । उन्होने चित्तरक्षक नामके आचर्य के पास दीक्षा धारण की । और साधना के सोपान पर चढते हुए तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन किया । कालान्तर में वे आयुष्य पूर्ण करके दसवें प्राणत देवलोक में उत्पन्न हुए । भारत वर्ष में अयोध्या नामकी नगरी थी वहां सिंहसेन नामका राजा राज्य करताथा । उनकी रानी का नाम 'सुयशा' था । पद्मरथ मुनि का जीव प्राणत देवलोक से च्युत होकर श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन रेवती नक्षत्र में सुयशा रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए । चौदह महास्वप्न देखे । वैशाख कृष्णा त्रयोदशी के दिन मध्य रात्रि में रेवती नक्षत्र में बाज के चिह्न से चिह्नित तप्त सुहर्ण की कान्तिवाले पुत्र को महारानी ने जन्म दिया । देवी देवताओं एवं इन्द्रो ने भगवान का जन्मोत्सव किया । गुण के अनुसार भगवान का नाम अनन्तनाथ रखा गया । युवा होने पर अनन्तनाथ का विवाह अनेक सुराज्य कन्याओं के साथ हुआ । पचास धनुष ऊँचे एवं एकसौ आठ लक्षण से युक्त प्रभु का उनके पिता ने राज्या भिषेक किया । १५ लाख वर्ष तक राज्य पद पर रहने के बाद भगवान ने वर्षीदान दिया । और देवों द्वारा तैयार की गई । 'सागरदत्ता' नामक शिविका पर आरूढ हो वैशाख मास की कृष्णा चतुर्दशी के दिन रेवती नक्षत्र में अपरात में छठ तप सहित सहस्त्राम्र उद्यान में दीक्षा धारण की। साथ में एक हजार राजाओं ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की । इन्द्र द्वारा दिये गये देव दूष्य वस्त्र को धारण कर भगवान ने विहार कर दिया । तीसरे दिन भगवान ने विजय नगर के राजा विजयसेन के घर परमान्न से पारणा किया । तीन वर्ष तक छदमस्थ काल में विचरने के बाद भगवान अयोध्या नगरी के सहस्राम्र उद्यान में पधारे। अशोकवृक्ष के नीचे 'कायोत्सर्ग' में रहे । वैशाख कृष्णा १४ के दिन रेवती नक्षत्र में घनघाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया । देवोंने मिलकर केवलज्ञान उत्सव किया । समवसरण की रचना हुई भगवान ने देशना दी । देशना सुन कर 'यश' आदि ५० गणधर हुए छ सौ धनुष ऊँचा चैत्यवृक्ष था । पाताल नामक यक्ष एवं अंकुशा नाम की देवी शासन अधिष्टायक देव देवी हुए। __भगवान के परिवार में ६६००० छासठ हजार साधु ६२००० बासट हजार साध्वियाँ ९०० नौ सौ चौदह पूर्वधर, ४३०० सौ अवधिज्ञानी, ४५०० मनः पर्ययज्ञानी, ५००० पांच हजार केवलज्ञानी ८००० आठ हजार वैक्रियलब्धिधारी, ३२०० तीन हजार दो सौ वादी, २०६०८० दो लाख छ हजार श्रावक एवं ४१४००० चार लाख चौदह हजार श्राविकाएँ थों । संयम व्रत ग्रहण के पश्चात् साढे सात लाख वर्ष बीतने के बाद चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन रेवती नक्षत्र में समेत शिखरपर एक मास का अनशन कर सात हजार साधुओं के साथ भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया । भगवान ने कमारावस्था में साढे सात लाख वर्ष, १५ लाख वर्ष पृथ्वीपालन में एवं साढे सात लाख वर्ष संयमत्रत पालन में व्यतीत किये ! इस प्रकार भगवान की आयु तीस लाख वर्ष की थी । श्रीविमलनाथ भगवान के निर्वाण से नौ सागरोपम व्यतीत होने पर श्रीअनन्तनाथ भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया । १५ भगवानश्री धर्मनाथ धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह में भरत नामक विजय में भदिलपुर नाम का नगर था । वहां दृढरथ नामका राजा राज्य करता था । उन्होंने बिमलवाहन मुनि के समीप दीक्षा ली और कठोर साधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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