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________________ पट्टरानी का नाम 'जया' था । प्राणतकल्प की आयु पूर्ण करके पद्मोत्तर मुनि का जीव ज्येष्ठ शुक्ला नवमी के दिन शत भषा नक्षत्र में जया रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल के पूर्ण होने पर फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन शतभिषा नक्षत्र में रक्तवर्णाय महिषलांछन से युक्त एक पुत्र रत्न को जन्म दिया । देवी देवताओं और इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया । पिता के नाम पर ही पुत्र का नाम वासुपूज्य दिया गया कुमार देव देवियों एवं धात्रियों के संरक्षण में बढने लगे । । यौवन वय के प्राप्त होने पर भगवान की काया ७० धनुष ऊँची हो गई । अब राजकुमार वासुपूज्य के साथ अपनी राजपुत्रियों का विवाह कराने के लिए अनेक राजाओं के सन्देश महाराजा वासुपूज्य के पास आने लगे । माता पिता भी अपने पुत्र को विवाहित देखना चाहते थे किन्तु वासुपूज्य सांसारिक भोग विलास से सदैव विरक्त रहते थे। उन्हें संसार के प्रति किंचित भी आसक्ति नहीं थी। एक दिन अवसर देखकर माता पिता ने वासुपूज्य से कहा-पुत्र ! हम वृद्ध होते जा रहे हैं । हम चाहते हैं कि तुम विवाह करके हमारे इस भार को अपने कन्धे पर ले लो। हमें तुम्हारी यह उदासीनता अच्छी नहीं लगती । पिता की बात सुनकर वासुपूज्य कहने लगे-पूज्य पिताजी आपका पुत्र स्नेह मै जानता हूँ। किन्तु मै चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हुए ऐसे सम्बन्ध अनेक बार कर चुका हूँ । संसार सागर में भटकते हुए मैने अनेक दुःख भोगे है । अब मैं संसार से. उद्विग्न हो गया है । इसलिए अव मेरी इच्छा मोक्ष प्राप्त करने की है । आप मुझे स्वपर कल्याण करने के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करने कि आज्ञा दीजिए। वासुपूज्य के तीव्र वैराग्य-भाव के सामने माता पिता को झुकना पडा । अन्त में उन्होंने वासु पूज्य कुमार को प्रव्रज्या लेने की स्वीकृति दे दी । उसके पश्चात् लोकान्तिक देवों ने भी भगवान को प्रबजित होने की प्रार्थना की । भगवानने वर्षोंदान दिया । देवों द्वारा सज्झाई गई पृथ्वी नामकी शिविका पर आरूढ होकर विहारगृह नामक उद्यान में भगवान पधारे । उस दिन भगवान ने उपवास किया था । फाल्गुनी अमावस्या के दिन वरुण नक्षत्र में दिवस के अपराह्न में पंचमुष्ठी लुचन कर प्रव्रज्या ग्रहण की। भगवान के साथ छः सौ राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की । भगवान को उस दिन मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ इन्द्र द्वारा दिये गये देव-दूष्य वस्त्र को धारण कर भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया । ___ दूसरे दिन भगवान ने उपवास का पारणा महापुर के राजा सुनन्द के घर परमान्न से किया । एक मास तक छद्मस्थकाल में विचरण कर भगवन विहारगृह नामक उद्यान में पधारे । वहां पाटल वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे । माघ शुक्ला द्वितीया के दिन शतभिषा नक्षत्र में चतुर्थ भक्त के साथ भगवान ने शुक्ल ध्यान की परमोच्चस्थिति में चारों घनघाती कर्मों नो आयकर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया, देवों ने केवलज्ञान उत्सव किया । समवशरण की रचना हुई । भगवान ने देशना दी । देशना सुनकर अनेक नर, नारियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की । उनमें 'सूधर्म' आदि ६६ छासट गणधर मुख्य थे । भगवान के परिवार में ७२ हजार साधु, १ लाख साध्वियां, १२०० बारहसो चौदह पूर्वधर, ५४०० चौंपनसो अवधिज्ञानी छ हजार एक सौ ६०१०० मनः पर्ययज्ञानी, छ हजार ६००० केवलज्ञ दस हजार १०००० वैक्रियलब्धिधारी, चार हजार सातसौ ४७०० वादलब्धिधारी, दो लाख १५ हजार श्रावक एवं चार लाख ३६ हजार श्राविकाएं हुई । इस प्रकार अपने विशाल साधु के साथ एक मास कम चौवन लाख वर्ष तक केवली अवस्था में भव्यों को भगवान उपदेश देते रहे । ___अपना मोक्ष काल समीप जानकर भगवान चम्पा नगर पधारे । वहां आपने छ सौ मुनियों के साथ अनशन ग्रहण कर एक मास के अन्त में अबशेष कर्मों को खपाकर आपाढ शुक्ला चतुर्दशी के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में निर्वाण प्राप्त किया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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