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ज्ञान अवस्था में बिताये । इस तरह बहत्तर लाख पूर्व की आयु समाप्त कर भगवान श्रीअजितनाथ ऋषभदेव के निर्वाण के पचास लाख करोड सागरोपम वर्ष के बाद मोक्ष में गये ३-भगवान श्री संभवनाथ का पूर्व भव
धातकी खण्ड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में 'क्षेमपुरी' नाम की नगरी थी । वहां विपुल वाहन नाम का राजा राज्य करता था । वह प्रजा का पुत्र की तरह पालन करता था । एक बार राज्य में दुष्काल पड गया । वर्षा के अभाव में वर्षा काल भी दूसरा ग्रीष्मकाल जैसा बन गया था । नैऋत्य कोण के भयंकर वायु से रहे सहे पानी का शोषण और बृक्षों का विच्छेद होने लगा। भूखे मनुष्यों के भटकते हुए दुर्बल कंगालों से नगर के प्रमुख बाजार और मार्ग भी स्मशान जैसे लग रहे थे । ऐसे भयंकर दुष्काल को देखकर राजा बहुत चिन्तित हुआ । उसे प्रजा को दुष्काल की भयंकर ज्वाला से बचाने का कोई साधन दिखाई नहीं दिया। उसने सोचा यदि मेरे पास जितना धान्य है वह सभी बाट दूं । तो भी प्रजा की एक समय की भूख भी नहीं मिटा सकता, इसलिए इस सामग्री का सदुपयोग कैसे हो ? उसने विचार करके निश्चय किया कि प्रजा में भी साधर्मी अधिक गुणवान होते हैं और साधर्मी से साधु विशेष रक्षणीय होते हैं । मेरी सामग्री से संघ रक्षा हो सकती है । उसने अपने रसोइये को बुलाकर कहा"तुम मेरे लिए जो भोजन बनाते हो वह साधु साध्वियों को दिया जावे और और अन्य आहार संघ के सदस्यों को दिया जावे । इसमें से बचा हुआ आहार में काम में लूगा ।
राजा इस प्रकार चतर्विध संघ की सेवा करने लगा वह स्वयं उल्हास पूर्वक सेवा करता था । ब तक दुष्काल रहा तब तक इसी प्रकार सेवा करता रहा । संघ की वैयावृत्य करते हुए भावों के उल्लास में राजा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । कालान्तर में राजा ने स्वयंप्रभ नाम के आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की और दीर्घकाल तक कठोर तपस्या कर अनशन पूर्वक देह का त्याग किया और
मरकर नौवे स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । ३-भगवान श्रीसंभवनाथ
श्रावस्ती नगरी में जितारी नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सेनादेवी था । सप्तम अवेयक से चवकर विपुलवाहन के, जीव फाल्गुन शुक्ला. अष्टमी के दिन महारानी के गर्भ में आया। महास्वप्न और उत्सवादि तीर्थकर के गर्भ एवं जन्मकल्याण के अनुसार शरीर सुंदर अश्वचिन्हसे युक्त प्रभु का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी के दिन हुआ । भगवान का नाम संभवकुमार रखा । चारसौ धनुष उचाई वाले भगवान का विवाह अनेक श्रेष्ठ राज कन्याओं के साथ हुआ । पंद्रहलाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे । पिता ने संभवकमार को राज्याधिकार देकर प्रव्रज्या अंगीकार करली । प्रभु ने चार पूर्वाग और चवालीस लाख पूर्वकी उम्र में वर्षीदान देकर और सिद्धार्थी नामक शिबिका में आरूढ होकर नगर के बाहर सहस्त्राम्र उद्यान में दिवस के पिछले प्रहर में मृगसिर नक्षत्र के योग में प्रव्रज्या स्वोकार करली । उस दिन भगवान को छठ की तपस्या थी । दूसरे दिन श्रावस्ती नगरी में सुरेन्द्रदत्त के घर परमान्न से पारणा किया । चौदह वर्ष तक छद्मस्थ रहने के बाद कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन सहसाम्र उद्यान में बेले के तपयुक्त प्रभु के घातिकर्म नष्ट हुए और केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । केवलज्ञान के बाद भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की । चारू आदि १०२ व्यक्तियों ने भगवान के पास प्रव्रज्या लेकर गणधर पद प्राप्त किया। भगवान को केवल ज्ञान होने के बाद चार पूर्वांग और चउदह वर्ष कम एक लाख पूर्व तक तीर्थकर पद पर रह करके एक हजार मुनियों के साथ सम्मेत शिखर पर्वत पर चैत्रशका पंचमी के दिन मोक्ष प्राप्त किया । भगवान श्री संभव नाथ ने कुल ६० लाख पूर्वकी आयु पूर्ण कर श्रीअजितनाथ भगवान के निर्वाण के तीस लाख कोटी सागर के बाद निर्वाण पद प्राप्त किया ।
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