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________________ ३९८ पोताना शिष्य श्री घासीलालजी ... ने सं १९९० मां संप्रदायथी बहार कर्या छे अने आज्ञाबहारनी घोषणा आ मंडळ द्वारा करावी दीधी छे जेने मान आपीने कोन्फरन्सना प्रेसीडेन्ट श्रीमान हेमचन्दभाई रामजीभाई महेता ए 'जैन प्रकाश' ता. २९-१०-१९३३ अंक २ पृष्ट १४ पर श्री संघने आवश्यक सूचना' हेडिंगथी जाहेर करेल छ के. जे उपरथी आ खबर हिंदना श्री. स्था. जैनना चतुर्विध संघने आपवामां आवे छे के जेथी साधुसंमेलन अने कोन्फरन्सना धाराघोरण अनुसार व्यवहार करी शकाय. हालमां अमदावादथी प्रकट थतां 'स्थानकवासी जैन' ना अंक १४ ता. ९-१-१९४४ मां समाचार शीर्षकमां प्रगट थयां छे के दामनगरना आगेवान गृहस्थोंना प्रबन्धथी श्रीघासीलालजी ने दामनगर पधारी शास्त्रोद्धारनं कार्य करवा माटे संघवति शाह मोहनलाल केशवलालभाईने विनंती करवा माटे उदयपुर मोकल्या हता इत्यादि ........ आ मरुघर पंडित मुनि श्री ऐज छे के जेमने स्वगोंय पूज्य श्री जवाहरलालजी म साहेबे सम्प्रदाय थी पृथक कर्या हता' अने आज सुधी आज्ञा बहारज छे. प्रत्येक स्था. जैनो नु ए सामान्य नैतिक कर्तव्य छे के आचार्य महाराजे जैने संप्रदायथी जुदा कर्या छे. अने कोन्फरन्से जाहेर करेल छे, तेमनी साथे कोई प्रकारनो शिष्टाचार आदि व्यवहार न करें, परन्तु काठियावाड जेवा शिक्षित प्रदेशनो दामनगर संघ अने श्रीमान दामोदरदास भाई जेवा शास्त्रज्ञ पुरुष 3 नियमनो भंग करीने तेमने विनंती करीने बोलावे अने स्वच्छन्दाचारनो पोषण आपे एथी अधिक खेदनो विषय शु होई शके ? एटले अमे कोन्फरन्सना अग्रेसरो तथा काठियावाड स्था. जैन. संघ समीतीना नेताओन लक्ष्य खेचीये छीये अने कोन्फरन्सनी जाहेरातनुपालन करवानो आग्रह करीये छीये. बालचन्द श्री श्रीमाल-सेक्रटरी हिरालाल नांदेचा प्रमुख श्री साधुमार्गी जैन पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी म. नी सं. ना हितेरच्छु श्रावक मण्डल-रतलाम श्री साधुमार्गी जैन पू. श्री हुकमचन्दजी म. नी सं. ना हितेरछु श्रावक मण्डल रतलाम नम्र विनती साथे प्रत्युत्तर :-- आ पेपरना ता. २४-१-४४ ना अंकमां आपना तरफथी कोन्फरन्सना सुत्रधार श्री काठीयावाड स्था. जैन. संघसमीति तथा दामनगरना श्री स्था. जैन. संघने नम्र विनंती, ये मथाळा नीचे जे लेख लखायेलो वमां अने एक जुदा रजीस्टर पत्रथी मने जे सूचना करीने खेद जाहेर को छे. ते सम्बन्धमा जणाववानु के आपे पज्य श्री घासीलालजी महाराजने 'सम्प्रदायथीपृथक' करवानु लख्युं छे तेनो अर्थ शास्त्रीय भापामां विसंभोग' करवाना थांय छे. शास्त्रमा 'विसंभोगी करे आणा न आणा नाई वच्च। धारोके आ पृथकरण न्यायपुर सर छे तो पण अनेक तीर्थकरोंनी 'आणा' त्यांज खतम थाय छे. अने त्यार पछीनी जे प्रबृत्ति शास्त्राज्ञा बहारनी प्रवृत्तिमा क्यो धर्मज्ञ संघ संस्था के व्यक्ति साथ आपी शके ? केमके आपने साथ आपतां अनन्त तीर्थकरोनी आज्ञा उपर पग मूकवो पडे परिणाम बहुल संसारी थQ पडे, जिनाज्ञा बहारना कारणो नियतिनु अस्तित्वज नथी त्यां भंगनो सवाल उपस्थीत ज शी रीते थई शके ? जैन तत्वज्ञानमा प्रत्येक व्यक्ति पोतानु कल्याण पोतेज साथी शके छे, पर साधी शके नही, छतां पण कोई खोटो प्रयत्न पण करे तो पोताना कल्याण ने कुभावना सिवाय (मात्र प्रयत्न पण) करी शके नहीं उपर अवतारेल पाठ निषेधार्थमाँ मूकवा शास्त्रकारे भाषा संमिती साचवी छे, अर्थात् विसंभोगी करतां आज्ञा तो नथी (मोक्ष मार्गनु विधान नथो) पण विषय ऐटलो सत्वहीन छे के तेथी आज्ञा नो अतिक्रम थाय नहिं. तो पछी तेनाथी आगल जता तो आज्ञा ज शी रीते घटी शके ? अर्थात् न घटी शके. उलट आज्ञानो अतिक्रम छे. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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