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तो उसे अपने परिवार सहित भूखा रहना पडता है इस लिये उसे कहा गया कि तेरे घर पर खाने के लिये कुछ नहीं है, यह अनाज मत दे, अपने घर बच्चोंके लिये ले जा । भील यह सुनकर दुखयुक्त अश्रु भीनी आखा से बोला-"में गरीब हूँ इस लिये मेरा लाया हुआ अनाज नहीं ले रहे हो और मेरी इच्छा देने की है । में दुबारा जंगल से लकडो का गठर लाकर बेच दूंगा और अपने परिवार के लिये खाने की व्यवस्था कर लूंगा । जो मेरा लाया हुआ अनाज नहीं लोगे तो मुझे बडा दुःख होगा । क्या कोई गरीब होने से किसो की भी सहायता करने का अधिकारी नहीं हो सकता ? भीने नयनों से बोल रहे भील की उदात्त भावना के सामने इनकार करने वालों को उसका लाया हुआ अनाज ले लेना पड़ा। भील जो अपढ़ और लोगों की दृष्टि से गिरा हुआ माना जाता है वह देने के लिये कितना उत्कंठित और भावों से कितना उज्वलितथा । दूसरी और लोगों की दृष्टि में जो ज्ञानवान और समृध्यवान माना जाता है । उसे ऐसे कार्यो में देने के वास्ते किस प्रकार मनाना पड़ता है । और देता है तो कितना ! फिर अहसान का पुलिन्दा चारों तरफ दिखाता भी फिरता है। तब प्रश्न खड़ा होता है कि मन गरीब धनी है या मन का उदात्त धनी है ? पर्युषण के बाद भादरवा शुद १४ के दिन दोंनों तपस्वियों के तपश्चर्या का पूर होने से पानरवा, महैरपुर ओगणा, झाड़ोल, गोगुन्दा, पदराडा के जागीरदारों ने अपने अपने परगणों में अगते पलवाए । पदराड़ा ठाकुर सा. श्रीमानसिंहजो स्वयं दर्शनार्थ आए । सायरा हाकीम (कलकटर) श्री जीवनलालजी चौधरी परिवार सहित पूर पर आए । लीमडी, संजेली, झालोद, दाहोद, कुशलगढ़ वांमवाडा से दर्शनार्थी आए । उस दिन व्याख्यान मे लगभग ३-४ हजार जनता थी। सभी के लिये ठहरने की व्यवस्था में अन्य जाति के लोगों ने पूरा सहयोग दिया । पारणे के दिन पास के भागल (गांव) के निवासी अमराजी ब्राह्मण के भी आठ उपवास का पारणा था । उसने व्याख्यान में सभी से आग्रह किया कि आप सभी मेरे घर पर पधारोगे तो में पारणा करूंगा । उसके ऐसा कहने पर हाकिम साहब आदि सभी आधा मील दूरी उनके घर पहूंचे । छोटा सा घर, सामान्य परिस्थिति, परन्तु राम के पदारपण से शबरी को, कृष्ण के आने से विदुर को तथा भगवान महावीर के आने से सती चन्दना को जो खुशी हुई वही खुशी सारी सभा सहित पूज्य श्री के वहां पहुंचने से उन अमराजी ब्राह्मण को हुई । उसने महेमान गिरी के लिये दो किलो मालपुए, बनवा रखे थे । तीन हजार लोगों में दो किलो मालपुए, इनकार करे तो उसके मन को पिडा पहुंचना सम्भव था इसिलिये हाकीम साहब ने परसाद के रूप में सभी को बटवा दिया । उस समय देने वाले लेने वालों को प्रसन्नता अवर्णनीय थी । भावों क' निर्मलता पदार्थो को मौन बना देता है भाव ही जीवन विकाश का एक दिव्य साधन है ।।
चातुर्मास समाप्ति के साथ दामनगर सौराष्ट्र से शास्त्रज्ञसेठ दामोदरदास भाई आदि श्रीसंघ जगजीवन भाई का दामनगर पधारने के लिये आग्रह भरा विनन्ती पत्र आया। पं. श्री गबूलालजी म. का परिचय जव से सेठ दामोदर दास भाई से हुआ तब से पं. श्री गबूलालजी म. ने सेठ को सलाह दी कि आप पूज्य श्री घासीलालजी म. को विनन्ती करके दामनगर बुलावें और जैनागमों की संस्कृत हिन्दी गुजराती भाषा में सर्वमान्य टीका लिखवावें । एसे मयश्रद्धा के लेखक भारत में मिलना दुर्लभ है तदनुसार सेठजी ने पूज्य श्री को दामनगर पधारने का विनन्ती पत्र भेजा । उधर चातुर्मास समाप्ति के समय अशाता वैदनी कर्म के उदय से पूज्यश्री को तथा पं श्री समीरमुनिजी म. को ज्वर आने लग गया जशवन्तगढ श्रीसंघमहान सेवा भावी अने भक्ति वान परंतु छोटा गांव होने से आधुनिक उपचार व्यवस्था का अभाव होने के कारण ज्वर का तांता चलता ही रहा । चातुर्मास समाप्त होने पर बिहार किया । प्रथम बिहार भेरुजी के मन्दिर पर हुआ । जहां आस पास के गांवों के ब्राह्मण आदि जाति के स्त्री पुरुष बहुत बड़ी संख्या में आए । वहां केवल एकमन्दिर के
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