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लगे । बगडू दे के श्रावक गण सम्मानपूर्वक आगन्तुक सज्जनों का स्वागत करने लगे । गांव छोटा होते हए भी स्थानीय श्रीसंघ ने अतिथियों को ठहरनेकेलिए उचित एवं सुन्दर प्रबन्ध किया । ता० २०-९४२ के पांच बजे तक तो सारा गांव मानवों की भोड से यात्रा धाम बन गया । जंगल व गांव जहां देखो वहां मानव ही मानव नजर आते थे । उदरपुर. लीमडो दाहोद, राजगढ, कुशलगढ, नागोर, कानपुर, कम्बोल, पदराडा, नान्देसमां, तरपाल, जसवन्तगढ, खमणोर वाटी, भूताला, नाई, मादडा, वाँगपुरा, देवास, आदि बहुसंख्यक गांवों से व मेवाड, मारवाड, मालवा, सेरा, नरा भोमट, झालावाड आदि प्रान्त के हजारों भक्त गण पूज्यश्री के एवं तपस्वोजी के दर्शन के लिए आये ।।
दूसरे दिन अर्थात् तारीख २५।९ ४२ को जाहिर प्रवचन का विशाल आयोजन किया गया । दर्शनाथियों के लिए विशाल पांडाल बनाया गया । प्रातः होते ही श्रावक गण पाण्डाल में पहुँच कर यथायोग्य स्थान ग्रहण करने लगे । तपस्वीजी के साथ पूज्य श्री ठीक आठ बजे पट्टे पर बिराजे । उनके साथ अन्य मुनिवर भी यथा स्थान बिराज गये । मांगलिक स्तुतिपाठ के बाद पूज्यश्री ने तप के विषय में मननीय प्रवचन दिया । अन्य भी कई विचारकों ने एवं मुनिवरों ने तप के विषय में अपने अपने विचार व्यक्त किये एवं अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त को ।
इस अवसर पर छोटी बडी अनेक तपस्याएँ हुई । सीमातीत त्याग प्रत्याख्यान हुए । मिठाईयों की प्रभावना हुई । तपस्वीजी की जय जयकार करते हुए सभा विसर्जित हुई । बगडुदे का यह प्रसंग सबके लिए चिरस्मरणीय बन गया । आज के इसपुनीत प्रसंग पर बगडुदा, गोगुन्दा, उदयपुर, जसवन्तगढ पदराडा आदि के स्थानकवासी जैन संघ के स्वयंसेवयकों ने बडी भारी सेघा की तथा स्थानीय श्रावक संघ ने तन मन धन से सेवा का कार्यकर एक आदर्श उपस्थित किया । समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ ।
पूज्यश्री ने चातुर्मास किया उस समय वहां एक एक घर में आठ आठ. दस-दस गायें मेसें थी। किसानों के घर तो २५ पंचास भैसों का होना सर्व साधारण था । दूध बेचना महापाप मानाजाता था । विवाह शादियों में तेल के स्थान पर शुद्ध घो का ही प्रयोग किया जाता था । गांव में लडाइ, झगड़ा, टंटा फिसाद या मुकदमा बाजी में किसी को रुचि नहीं थी। सभी लोग अपने अपने काम काज तथा हाल हवाल में मस्त रहते थे । वहां उस समय ८० वर्ष के एक लक्षाधिपति सेठ रहता था । वह पूज्य श्री से कहा करता था कि मैंने अपने जीवन में कोर्ट कचहरी, वकिल या मजिस्ट्रेट का नाम भों नही लिया । जिनसे मेरा व्यापारिक लेन देन हैं उनमें मुझे और मेरे में उनको पूर्ण विश्वास है। समी लोग समय पर ले जाते हैं वैसेहि तो दे भी जाते हैं । परस्पर के शुद्ध व्यवहार से किसी को भी गडबड़ पेदा करने का या पैसा न देने का विचार ही न उत्पन्न होता तो फिर कोर्ट में जाने की आवश्यकता ही क्या है। उस भाई ने कहा-एक बार भयंकर दुष्काल पडा । दुष्काल के कारण सर्वत्र हाहा कार मच गया था । एक किसान कुटुम्ब यहां रहता था । दुष्काल के कारण उस वर्ष उसके खेत में अन्न का एक दाना भी नहीं पका । उसके पास का रहा सहा अन्न भो समाप्त हो गया । अन्नाभाव के कारण सारा कुटुम्ब भूखा रहने लगा । एक दिन वह किसान मेरे पास आया और बोला-सेठजी, घर में अनाज का एक दाना भी नहीं रहा । मेरी पत्नी बाल बच्चे सभी कल से भूखे बैठे हैं । सेठ उसकी दुःखभरी कहानी सुनकर अपने आंखों में भी आसू छलछला गये । मैंने उसे आश्वासन देते हुए कहा भाई ? आपत्तियां तो सब पर ही आती है । ऐसे समय धीरज से काम लेना चाहिए । मैंने तुरत कोठार में से अनाज बिना तोले हि उसे जितना चाहिए उतना दे दिया। उसने अपनी चादर में अनाज बांध दिया । वह गठरी उठाकर चलने लगा तो मैंने कहा ओर चाहे तो फिरसे लेजाना किन्तु भूखे मत रहना । वह घर पहुँचा और उस अनाज की राबडी बना बना
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