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________________ हम खुदा थे गर न होता, दिल में कोई मुद्दआ । आरजुओंने हमारो, हमको बन्दा कर दिया ।। तप ही मनुष्य की इच्छा पर नियंत्रण करता है । वासनारूपो झंझावातों को शान्त करता है । तप का अराधन करना सामान्य बात नहीं हैं । तप जितना महान हैं उसका आचरण भी उतना ही दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति इसकी आराधना नहीं कर सकता । जन्म जन्मांतर के शुभ संस्कारों वाला कोई जितेन्द्रिय और मुमुक्षु ही इसकी उपासना कर सकता है । तप का मार्ग बडा दुष्कर है । उन्हें धन्य है जो इस दुगम मार्ग पर चल कर मोक्ष मार्ग को प्राप्त करते हैं । मेरे शिष्य श्री मदनलालजी ने तप के महत्त्व को खूब अच्छा समझा है और उसे अपने जीवन में उतारा है । जब से मुनि मदनलालजी ने दीक्षा ग्रहण की थी तभी से आज दिन तक प्रतिवर्ष इसी प्रकार की लम्बी लम्बी तपश्चर्या करके अपने पूर्वोपार्जित कर्मों को जर्जरित कर रहे हैं। ऐसे तपस्वियों के जीवन का अनुकरण हमें भी करना चाहिए। इतनी बडी तपस्या तो सभी नहीं कर सकते किन्तु यथा शक्ति त्याग प्रत्याख्यान कर इस महानतपस्वी को श्रद्धांजली अर्पित कर सकते हैं । पूज्यश्रो तप और तपस्वीजो के महात्म्य पर करीब एक घण्टे तक प्रवचन दिया । पूज्य श्री के प्रवचन का जनता पर अच्छा प्रभाव पडा । फलस्वरूप सीमातीत त्याग प्रत्याख्यान हुए । दूसरे दिन अपने हाथ से ८२ दिन के तपस्वी मुनि को पारणा कराकर पूज्य श्री वापस बगडूंदे पधार गये । बगडू दे में ८४ दिन का महान तपोत्सव पूज्यश्री के चातुर्मास के पदार्पण के साथ ही तपस्वी मुनिश्री मांगीलालजी महाराज ने अपनी तपसाधना प्रारंभ कर दी थी । इनकी तप साधना को देखकर स्थानीय श्रावक श्राविकाओ ने भी यथा शक्ति तपश्चर्या प्रारंभ कर दी । तपस्वी जी की महान तपश्चर्या का प्रारंभ आषाढ़ कृष्णा ४ को हुआ था । तपस्वीजो की महान तपश्चर्या ज्यों ज्यों बढती गई त्यों त्यों स्थानीय श्री संघ में एवं आस पास के सारे प्रान्त में अपूर्व धर्मोत्साह जागृत हुआ । संघ की यह इच्छा थो कि तपस्वीजी अपनी तपश्चर्या का अन्तिम दिन प्रगट करें । एक दिन बगडूंदे का श्री संघ पूज्य श्री की सेवा में उपस्थित हुवा और नम्र प्रार्थना करने लगा कि तपस्वीजी की तपश्चर्या का अन्तिम दिवस प्रगट किया जाय । श्रीसंघ को अत्याग्रह भरी विनती को मान कर पूज्य श्री ने ८४ दिन की तपश्चर्या का पूर ता० २३।९।४२ को प्रगट किया । संघ में हर्ष छा गया । संघ ने तपश्चर्या की पूर्णाहुति का दिन बडे प्रभावशाली ढंग से मनाने का निश्चय किया । तपमहोत्सव की आमंत्रण पत्रिका छपवाकर सर्वत्र भेजी गई । बगडूंदा गांव उदयपुर शहर से १५ मील दूर अरावलियों की पहाडों में बसा हुआ है । छ माईल का रास्ता सडक का है और नौ माईल का रास्ता पहाडी है । घोडे तथा ऊंट की सवारी पर या पैदल ही बगडूदे पहुँचना होता है । यह गांव समुद्र की सतह से भी बहुत ऊंचा है । और आबू की टेकरियों जैसा लगता है प्राकृतिक शोभा से सुरम्य है । इसके चारों और कि पहाडियां आकाश को छूती हुई नजर आती है । घनेजङ्गल बडे ऊंचे वृक्ष इसकी शोभा में चार चान्द लगाते हैं । बगडू दे का मार्ग दुर्गम होते हुए भी आमंत्रण पत्र पाकर हजारों लोग मेवाड निवासी श्रद्धालु श्रावक झुण्ड के झुण्ड बगडूंदे पहुंच कर पूज्यश्री के चरणों को छू कर वन्दना करते हुए अपनी श्रद्धा व्यक्त करने लगे । जिसकी लम्बे समय तक प्रतीक्षा की जा रही थी वह पावन दिवस आ पहुँचा । हजारों श्रावक गण इस पुनित प्रसंग पर मार्ग की अनेक कठिनाईयों को सहते हुए भी पहुंच गये । बगडूंदे से गोगून्दा चार माईल होता है । गोगून्दे के भाविक श्रावक श्राविकाएँ सैकड़ों की संख्या में मंगल गान गाती हुई पं. मुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज के साथ पैदल ही चल पडी । बगड्दे में पूज्य श्री के एवं तपस्वीजी के दर्शन कर अपने नेत्रों को पवित्र करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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