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किये । इधर पूज्यश्री भी ठीक समय पर अपनी शिष्यमंडली के साथ जेल में पधारे । साथ में बहुत से श्रावकगण भी थे । जेलर साहेबने पूज्यश्री का स्वागत किया और समस्त कैदियों ने भी खडेहोकर पूज्यश्री का अभिवादन किया । जेल में किसी को भो आने जाने की इजाजत नहीं होती । और न ईस प्रकार का पुनित अवसर ही कैदियों को नसीब होता । सभी कैदियों को यह सब कुछ देखकर बडा आश्चर्य हुआ । सभी कैदी आज अपने अपने भाग्य को सरहाने लगे और महाराणा साहब को धन्यवाद देने लगे कि महा राणा साहब ने दया कर के हमको यह सुअवसर प्रदान किया ।
पूज्यश्री श्रावकगण और सन्तमन्डली के साथ जेल के अन्दर के चौक में पधारे । जेल का मकान अन्दर से बडा अच्छा लगता था । स्वच्छता सर्वत्र दिखाई देती थी । ऊचे ऊचे वृक्षो एवं बाग जैसे बडा सुशोभित था । कैदिगण भी बडे सुव्यवस्थित लगते थे । कैदियों को देखने से पता लगता है कि यहां के कैदियों के साथ दया का अच्छा वर्ताव होता है। उनके साथ नृशंसता महीं होती पूज्यश्री मुनियों द्वारा लाए गए टेबलपर जा बिराजे । जेलर साहब ने सभी कैदियों को पंक्ति बद्ध बैठने का हुक्म फरमाया। पूज्यश्रीने सर्व कैदियों को सम्बोधित करते हुए पाप पुण्य के अच्छे और बुरे फल बताए । आपने फरमाया भाईयो संसार में इस आत्मा को कही भी सुख नहीं है। कर्म जन्म दुःख सब जगह आ घेरते हैं । अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य सदाचार अपरिग्रहत्व आदि सदगुणों को अपने जीवन में उतार कर बुरी आदतों को छोडकर ईश्वर भजन करना चाहिए ईश्वर भजन से ही आत्मा सुखी व बलवती होती है । सेन्ट्रल जेल में प्रवचन
आचार्यश्री ने अपने प्रेरणास्रोत प्रवचन में कहा-प्रिय बन्धुओ जेल की सजा होना मात्र ही पाप का प्रायश्चित नहीं है । सजा होने के बाद भी यदि पाप का प्रकटीकरण नहीं होता है तो उससे पूरी शुद्धि कभी नहीं होगी। पाप की शुद्धि के लिए वृत्तियों में सहजता होनी चाहिये सहजता के लिए धर्म का सहारा लेना होगा । जीवन का ऊँचा आचार और पवित्र विचार ही वास्तविक धर्म है । धर्म जीवनजागृति का साधन है । वह विकाश और शान्ति का सच्चा मार्ग देता है। पर यह सर्व कबतक ? जबकि व्यक्ति उसके आदर्शों पर अपने जीवन को ढाल देता हो । केवल परम्परा-पोषण और स्थिति पालन में धर्म को बांधे रखना उसे जड और निस्तेज बनाना है । धर्म तो जीवन- शुद्धि का निर्द्वन्द्व और अप्रतिबन्ध राजमार्ग जैसा है । बन्धन और धर्म, इनका कैसा मेल ? यदि जडता और चेतना का मेल हो तो इनका हो । धर्म साधना में अपने मन को रमा देनेवाले के अंतरतम में वह चिनगारी पैदा होती जाती है. जो हरदम उसे कुमार्ग से बचने के लिये सदा सजग और सद् बुद्धि रखती है । जडता में वह उसे जाने नहीं देती । वह तो उसे आत्म चेतना में खोए रखना चाहती है । इसलिए मैं अक्सर कहा करता हूँ, केवल मन्दिरों में जाने मात्र से तीर्थ स्थानों पर चक्कर लगाने मात्र से क्या बनेगा ? यदि धर्म के मूल आदर्शों को जीवन में प्रश्रय नहीं दिया जाए । मैं कईबार देखता हूँ- लोग आते हैं । मेरे चरणों के नीचे की धूल ले जाते हैं। उसके सहारे अनेकानेक बाधाओं से छूटने की परिकल्पना करते हैं । मैं कहता हैं । आप उन आदशों को ही लीजिए जिन्हें मै हर समय जीवन में लिये चलता हूं, और जिनकी व्याप्ति में लोगों में भी देखना चाहता हूँ। वे हैं - अहिंसा, दया, सत्य, शील संतोष और शौच । इन्हें लीजिए । यही सच्चा 'जीवन' तीर्थ है जैसा कि महाभारत में युधिष्ठिर को कहा गया है
आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्थ । सत्यौदकं शीलतटोदयोर्मि ॥ तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुद्धथति चान्तरात्मा ॥
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