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________________ .२३ ये छहा बालक सुखपूर्वक बढते हुए बाल्यकाल से ही परस्पर मित्र रूप से खेल कूद के साथ रहने लगे । इनकी मैत्री प्रगाढ थी। उनमें जीवानन्द आयुर्वेद विद्या में संपूर्ण निष्णात हुआ । वह अपने पिता की तरह अल्प समय में ही नगर का सुप्रसिद्ध वैद्य बन गया था । नगर जन उसका बड़ा मान करते थे । अन्य पांच मित्रभी युवा हुए । और अपने अपने पिता के कार्य में हाथ बटाने लगे। इन छहो मित्रों की वय के साथ मित्रता भी बढ़ रही थी। एक दिन वे पांचों मित्र जीवानन्द वैद्य के यहाँ बैठे थे। उसी समय एक तपस्वी महा मुनि उधर से निकलें । उनके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता था कि उनके शरीर में कोई व्याधि है अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण जीवानन्द वैद्य का ध्यान उधर न गया । महीधर राजकुमार ने उससे कहा मित्र तुम बडे भारी स्वार्थी मालूम पडते हो । जहाँ निस्वार्थ सेवा का अवसर होता है उधर तुम ध्यान ही नहीं देते । ___जीवानन्द ने कहा-मित्र आपका कथन यथार्थ है, किन्तु मुझे अब बताइए कि मेरे योग्य ऐसी कौन सी सेवा है। राजकुमार ने जबाब दिया-वैद्य इस तपस्वी मुनिराज के शरीर में कोई रोग प्रतीत होता है । इसे मिटाकर महान् धर्म-लाभ लीजिए । जीवानन्द बहुत चतुर वैद्य था । उसने मुनि के शरीर को देखकर जानलिया की कुपथ्य सेवन से यह रोग हुआ है । जीवानन्द ने अपने मित्रों से कहा कि इसको मिटाने के लिए लक्षपाक तेल तो मेरे पास है किन्तु गोशीर्ष चन्दन और रत्नकंबल ये दो वस्तुएँ मेरे पास नहीं है । यदि ये दोनों वस्तुएँ आप लेआवे तो मुनि की चिकित्सा जरूर हो सकती है और इनका शरीर पूर्ण स्वस्थ वन सकता हैं । जीवानन्द का उत्तर सुनकर पांचों मित्र बाजार में गये । जिस व्यापारी के पास ये दोनों महान चीजे मिलती थी उनके पास जा कर इनकी कीमत पूछी । व्यापारी ने कहा "इन दोनों वस्तुओं का मूल्य दो लाख सुवर्ण मुद्रा है । मूल्य चुकाकर आप उन्हें लेजा सकते हैं । किन्तु प्रथम यह बताइएगा कि आप लोग इतनो कीमत की वस्तु ले जा कर क्या करेंगे" । उन्होंने कहा-एक मुनि कि चिकित्सा के लिए इनकी आवश्यकता है । युवकों की इस अपूर्वधर्म-भावना और दयालुता को देखकर रत्नकंबल का व्यापारी बड़ा प्रसन्न हुआ । वह बोला-युवकों ! तुम्हारी उठती जवानी में इस तरह की धार्मिक भावना को देख. कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। मैं गोशीर्ष चन्दन, और रत्नकंबल विना मूल्य के ही देता हूँ। आप इन चीजों से अवश्य ही मुनि की चिकित्सा करें ।” वे दोनो चीजे लेकर रवाना हुए। मुनिराज के विषय में चिन्तन करते करते वृद्ध को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने घर बार का त्यागकर दीक्षा ले ली और कर्मों का अन्तकर मोक्ष प्राप्त किया । पांचों मित्र वस्तुएँ लेकर जीवानन्द वैद्य के पास आये । वैद्य ने औषधोपचार कर मुनि के शरीर से कीटाणुओं को निकाले और गौशीर्ष चन्दन का लेप कर उन्हें पूर्ण निरोग बना दिया । कुछ काल के बाद छहों मित्रों को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने एक ज्ञानी आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा ग्रहण कर आगम-सूत्रों का अध्ययन किया । शास्त्र में पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त कर वे छहों मुनि विविध प्रकार की तपश्चर्या कर कर्मों को जर्जरित करने लगे । दीर्घ काल तक चारित्र का पालन किया । अन्तिम समय में अनशन कर समाधि पूर्वक देह का त्याग किया । और मरकर अच्युत देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बने । दसवां ग्यारहवाँ एवं बारहवां भव जम्बूद्विप के महाविदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नाम की एक नगरी थी । वहां वज्रसेन नाम के महा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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