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कान्ति मन्द पड़ गई। मुख पर दीनता आ गई। अन्ततः उसकी देव आयु जलते हुए कपूर की तरह समाप्त हो गई ।
ललितांगदेव स्वर्ग से च्युत हो जाने पर स्वयंप्रभादेवी की वही दशा हुई जो चकवे के विछोह में चकवी की होती है । वह रात दिन पति के वियोग में चुपचाप बैठी रहती थी । अन्ततः उसने अपने पति का ध्यान करते हुए अपनी देवआयु समाप्त की ।
६-७-वाँ भव—
ईशान देवलोक का आयुष्य समाप्त कर ललितांगदेव का जीव महाविदेह क्षेत्र के पुष्कलावती विजय में स्थित लोहार्गल नगर के राजा स्वर्णजय की रानी लक्ष्मीदेवी की कुक्षि से पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । उसका नाम वज्रजंघ रखा गया । स्वयंप्रभा देवी का जीव इसी पुष्कलावती विजय में स्थित पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन की पुत्रीरूप से उत्पन्न हुई। इसका नाम श्रीमती रखा गया । श्रीमती युवा हुई । एक समय वह अपने महल की छत पर बैठी थी । उसी समय उस ओर से कुछ देवविमान निकले। उन्हें देखकर उसे जातिस्मर का ज्ञान पैदा हो गया । उसे अपने पूर्वभव के पति ललितांगदेव का स्मरण हो आया । उसने मनमें दृढ संकल्प कर यह प्रण कर लिया कि जब तक मुझे अपने पूर्व भवका पति न मिलेगा तब तक मैं किसी से न बोलूंगी। अतः उसने मोन धारण कर लिया । श्रीमती की पण्डिता नामकी सखी थी। वह बहुत चतुर थी। उसने इसका कारण जान लिया कि श्रीमति की सहायता से उसने दूसरे देवलोक ईशानकल्प का तथा ललितांगदेव के विमान का एक चित्र बनाया किन्तु उसमें त्रुटियाँ रहने दी। उस चित्रपट को राजपथ पर टांग दिया। संयोगवश उस समय कुमार वज्र जंघ उधर से निकला । राजपथ पर टंगे हुए उस चित्रपट को देखकर उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया उस सुन्दर चित्रपट में रही हुई कमी को दूर कर दी । को लगा। इससे उसको प्रसन्नता हुई। वज्रसेन ने
इस बात का पता श्रीमती तथा उसके पिता वज्रसेन श्रीमति का विवाह वज्रजंप के साथ कर दिया।
बहुतकाल तक सांसारिक भोग भोगने के बाद दोनोंको वैराग्य हो गया । "प्रातः काल पुत्र को राज्य देकर दीक्षा अंगीकार कर लेंगे" ऐसा विचार कर राजा और रानी सो गये ।
उसी दिन राजपुत्र ने किसी शस्त्र अथवा विषप्रयोग द्वारा राजा को मारकर राज्य प्राप्त कर लेने का विचार किया । राजदम्पति तो सोए हुए जानकर राजपुत्र ने विष मिश्रित धूआं छोड दिया । दीक्षा लेने की उत्कृष्ट भावना और परिणामों की सरलता के कारण राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती के जीव उत्तर कुरुक्षेत्र में तीन पस्योपम की आयुवाले युगलिए हुए ।
८वाँ भव
युगलिये का आयुष्य समाप्त कर दोनों पति पत्नी सौधर्म देवलोक में देव हुए
९वाँ भव
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जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नामका रमणीय नगर था । उस नगर में सुविधिनामका एक बैद्य रहता था । देवलोक से चवकर वज्रसंघ का जीव सुविधिवैद्य के यहां पुत्र रूप से जन्मा । उसका नाम जीवानन्द रक्खा गया उसी समय के लगभग उस नगर में अन्य चार बालकों ने भी जन्म लिया । उनमें ईशानचन्द्र राजा की कनकावती रानी की कुक्षि से महीधर नामक पुत्र हुआ । दूसरा सुनासीर नामक मंत्री की लक्ष्मी नामक पत्नी से सुबुद्धि नामक पुत्र हुआ । तीसरा सागरदत्त सार्थवाह की अभयमती स्त्री से पूर्णभद्र नामक बालक हुआ । चौथा धन श्रेष्टी की शीलवती स्त्री के उदर से गुणाकर नामक पुत्र हुआ । प्रथम सौधर्म देवलोक से चवकर यहाँ श्रीमती के जीव ने इसी क्षितिप्रतिष्ठित नगर के प्रसिद्ध ईश्वर दत्त के घर जन्म लिया । उसका नाम
केशव रखा गया ।
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