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उच्च हुए कि देवों को भी आश्चर्य होने लगा । सेठ के परिणामों की परीक्षा करने के लिए देवताओं ने मुनि की दृष्टिबांध दी। जिससे मुनि अपने पात्र को देख नहीं सकते थे। इस कारण सेठ का चहराया हुआ घी पात्र भर जाने से बाहर जाने लगा । फिर भी सेट घी डालता रहा । परिणामों की उच्चत के कारण वह यही समझता रहा कि मेरा दिया हुआ घी तो पात्र में ही जाता है । सेठ के दृढ परिणामों को देखकर देवों ने अपनी माया समेट ली । और दान का माहात्म्य बताने के लिए वसुधारा आदि पांच दिव्य प्रगट हुए । धन्नासार्थवाह ने भाव पूर्वक दान देकर बोधिवीज सम्यक्त्व को प्राप्त किया । भव्यत्त्व का परिपाक होने से वह अपार संसार समुद्र के किनारे पहुँच गया ।
२ दूसरा भव—
सुखपूर्वक अपनी आयु पूर्ण करके व उत्तर कुरुक्षेत्र में तीन पल्योपम की आयुवाला युगलिया हुआ । ३ तीसरा भव
युगलिये का आयुष्य पूर्णकर पन्नासार्थवाह सेठ का जीव सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ ।
४- चौथा भव
पश्चिम महाविदेह में गन्धिलावती नामका विजय है । इस विजय में गान्धार नामका देश है । उस देश की राजधानो का नाम गन्धसमृद्धि है । इस नगरी में शतबल नामके विद्याधर राजा राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चन्द्रकान्ता था । धन्नासार्थवाह का जीव देव सम्बन्धी अपनी आयु पूरी करके महारानी चन्द्रकान्ता के गर्भ में उत्पन्न हुआ । गर्भकालके पूर्ण होने पर महारानी ने एक शक्तिशाली पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम महाबल रखा गया । महाबल अच्छे कलाचायों के समागम तथा पूर्वभव के संस्कार के सुयोग से समस्त विद्याओं में निपुण हो गया । महाराज शतबल ने अपने पुत्र को योग्यता को प्रकट करने वाले विनय आदि सद्गुणों से प्रभावित होकर उसे युवराज बना दिया ।
कुछ समय के बाद विषय भोगों से विरक्त होकर महाराजा शतबल ने दीक्षा लेने का विचार किया राज्याभिषेक पूर्वक समस्त राज्य अपने पुत्र महाबल को सौंप कर वे बन्धन से छूटे हुए हाथी की तरह बन्धन से निकल पड़े । वह आचार्य के समीप जाकर चारित्र ग्रहण कर लिया ।
पिता के दीक्षित होने पर महाराजा महाबल ने राज्य की बागडोर संभाली। वे अत्यन्त न्यायपूर्वक राज्य करने लगे । उनके जैसे न्यायी व प्रजावत्सल राजा को पाकर प्रजा अपने को धन्य मानने लगी । महाराजा महाबल के चारों बुद्धिनिधान साम, दाम, दण्ड भेद नीति के ज्ञाता चार महामन्त्री थे । इनके नाम थे स्वयं संभिन्नमति, शतमति, और महामति । ये चारों महाराजा के बाल मित्र व राज्य के हितचिन्तक थे। इनमें स्वर्यबुद्ध मन्त्रो सम्यग्दृष्टि था। शेष तीन मन्त्री मिध्यादृष्टि थे । यद्यपि उनमें इस तरह का मतभेद था परन्तु स्वामी का हित करने में चारों ही तत्पर रहते थे ।
एक समय महाराजा महाबल अपनी राजसभा में बैठे हुए थे। चारों मन्त्री भी महाराज के साथ अपने अपने आसन पर आसीन थे । शहर के गण्यमान्य नागरिक भी सभा में उपस्थित थे । राजनर्तकी अपने मनमोहक नृत्य से महाराज व सभासदों को मन्त्रमुग्ध कर रही थी। महाराज बडे मुग्ध होकर नर्तकी का नृत्य देख रहे थे। महाराज महाबल की इस आसक्ति को देखकर महामन्त्री स्वयं बुद्ध सोचने लगा "हमारे स्वामी संसार के कार्यों में इतने अधिक निमन है कि उन्हें परलोक सम्बन्धी विचार करने का समय भी नहीं मिलता । स्वामी के इन्द्रियों पर विजय पाने को अपेक्षा इन्द्रियां स्वयं उन पर विजय पा रही हैं । अगर हमेशा यही स्थिति रहो तो महाराज महाबल का परलोक अवश्य बीगड जायगा । अतः राज्य और स्वामी के सच्चे हितैषी होने के नाते महाराज को इस मोह के कीचड़ से निकालना चाहिए ।" यह विचार कर स्वयं बुद्धमन्त्रो नम्रभाव से बोला- राजन् ? जो शब्दादि विषय हैं वहीं संसार के
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