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किं बहुणा भणिएणं जं कस्सवि कहवि कच्छविसुहाई दिसंति भवण मज्झे तत्थ तवो कारणं चेव ॥
अर्थात् बहुत कहने से क्या प्रयोजन जिस किसी को कहीं भी किसी भी प्रकार का सुख संसार में दृिष्ट गोचर होता है उन सबों में तपस्या ही प्रमुख कारण है।
सारांश यह है कि तप की महिमा अजेय है अपरिमित है लेकिन जो तपस्या राग-द्वेष और ऐहिककामनाओं को छोडकर आ चरित को जाए वहा कार्य साधिका मानो जाता है । वासना-महासागर में डूबा देती है मननशील मानव भी आज ता के प्रभाव से अपनी कालिमा को धोकर शुद्ध और पवित्र बन जाता है । इसिलिए कहा है-'संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे. विहरइ”
हे साधक ! तूं संयम और तप से अपने आपको पवित्र करता चल साधना के महा पथ पर ।
मानव जीवन में तप का विशिष्ट स्थान है । संयम और नियम के विना मानव विकाश संभव नहीं । त्याग-तपश्चर्या आध्यात्मिक व आत्मिक सुख की एक महान सीढी है । इसकी शक्ति सागर के शान्त प्रवाहों में बैरियों के वैमनस्य लय हो जाते हैं और विरोधक शक्तियों के प्रचण्ड बल भी धीरे-धीरे शान्त पड जाते हैं । तप का महत्व व गौरव उसके पीछे रहे हुए किसी उदात्त हेतु एवं भावों की परम विशुद्धि पर अवलम्बित है तथा आध्यात्मिक सुख प्राप्ति ही इसका प्रमुख ध्येय होना चाहिए। इसी से मानव निर्भय पुरुष व सिद्ध मुक्त हो सकेगा । आत्मा के कल्याणार्थ तप की साधना अन्तस्तत्व के चिन्तन, मन के मन्थन व चित्तवृत्तियों के ग्रन्पन से ही सम्भव है । तथा एसी साधना से ही अनन्त-अनन्त काल से सिद्ध मुक्त, होते आए हैं व भविष्य में भी होवेंगे । जैन दर्शन दृष्टि को महत्व देता है । विशुद्ध दृष्टि के अभाव में तप-जप-स्वाध्याय संपूर्ण लाभ प्रेद नहीं होता ।
जैन धर्म में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय कर्मों को घातिया कर्म कहा है । तपस्या के प्रभाव से घाति कर्म का नाश होता है व आत्माओं को अनन्त चतुष्टय का प्रादुर्भाव होता है । तप के द्वारा ही एसो आत्माए अर्हत बन जाती है । अतः वास्तविक शाश्वत परम सुख की प्राप्ति के हेतु ममक्ष और साधक आत्म ओं को अपना जीवन तर मय बनाना होगा । जैसे सोना अग्नि से शुद्ध होता है । वैसे ही तपस्या से आत्मा शुद्ध होती है। और शुद्ध आत्मा ही अजर अमर अक्षय पद को प्राप्त करती है । इस प्रकार करीब एक घंटे तक महाराज श्री ने तप की महत्ता पर प्रवचन दिया । उस अवसर पर पं. मुनि श्री समरमल जी म० तथा पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराज ने भी तप की आवश्यकता पर पाण्डिय पूर्ण प्रवचन किया । यह अभूत पूर्व समारोह सब के लिए पुण्य स्मरण बन गया। तपस्या के पुर के तीन चार दिन पहले से ही कसाई खाने में मारे जाने वाले सैकड़ों पशुओं को अभय दान देना प्रारंभ किया गया था । दशहरे के अवसर पर मारे जाने वाले बकरे घेटे आदि को भी अभयदान दिया गया । उस दिन करावी के हजारों अन्धे लूले लंगडे गरीब, कुष्टरोगी, भिक्षक एवं पागल खाने में रहने वाले पागलों को मिष्ठान्न का भोजन दिया गया । इस अवसर पर पांजरापोल के पशुओं को घास-चारा देने के लिए ३०००) रुपया एकत्र किये गये ।।
___कराची में अपूर्व उपकार तो हुआ ही मगर बाहर गांव वालों ने भी इस पुनीत अवसर पर अनेक पुण्यकाभ किये । हैदराबाद श्रीसंघ ने कोटडी ठाकरसी भाई के मारफत तपस्या की पूर्णाहुति के । रावाद सिन्ध के गिदु बन्दर की मच्छिओं का मारना बन्द कराया उस दिन बन्दर के दोनों । आस पास पहरेदार बिठा दिये गये थे ताकि कोई व्यक्ति मच्छी न मार सके। यहां करीब वीस मील की हद्द में इतनी मछलियां होती है कि यहां के ठेकेदार को एक वर्ष के अस्सी हजार रुपये सरकार को देने पड़ते
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