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________________ २२५ चातुर्मास का समय समीप आने पर मेवाड के अनेक क्षेत्रों को पावन करते हुए मुनिश्री सन्तमण्डली के साथ चातुर्मासाथ गोगुन्दा पधारे । मेवाड के इतिहास में गोगुन्दा की अपनी स्वतंत्र जगह है । बहुतसी ऐतिहासिक घटनाएँ इस नगर में घटी है। यहां के शासक झालासरदार रहे हैं और राज उनकी उपाधि थी। महाराजश्री के समय बालकुमार राजश्री भैरुसिंहजी राजा राज करते थे । शाहजादा खुरम भी यहां रहा था । जैन साहित्य के १७वीं शताब्दी के ग्रन्थों में इस नगर का नामोल्लेख मिलता है। यह मेवाड के प्राचीन प्रधान स्थानकवासी संप्रदाय का केन्द्र भी रहा है । पहाड पर बसा हुआ होने से यह प्राकृतिक जलवायु की सुषमा से समृद्ध है । गर्मी के मौसम में यह स्थान बडा सुहावना लगता है। और गृष्म ऋतु कि रात्रि में भी कपडा ओडना पडता है। सन्त प्रवर के चातुर्मासार्थ आगमन से सारा नगर प्रसन्न था । जैन अजैन जनता ने बडी श्रद्धा और भक्ति से आपका भव्य स्वागत किया । उस दिन सारे नगर में जिवहिंसा बन्द रखी गई थी । गोगुन्दा (मोटेगांव) के सरकारी कर्मचारी भी बडी संख्या में उपस्थित हुए । आपके प्रतिदिन व्याख्यान होने लगे । बडी संख्या में लोग महाराज श्री की मधुर उपदेशमयी वाणी को श्रवण कर अपने को धन्य मानने लगे। चातुर्मास के बीच तपस्वी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने तपस्या प्रारम्भ कर दी । तपस्वीजी को तपस्या पर अनेक श्रावक श्राविकाओं ने यथाशक्ति त्याग, प्रत्याख्यान, दया, पौषध, उपवासादि तपस्याएं प्रारम्भ कर दी । उस अवसर पर समाजभूषण सेठ दुर्लभजीभाई जौहरी और केशुलालजी ताकडिया भी दर्शनार्थ आये । तपस्वीजी के दर्शन कर बडे प्रसन्न हुए । तपस्वीजी की गंभीर एवं शान्त मुखमुद्रा को देखकर बोल पडे-"हमने अपने जीवन में अनेक तपस्वियों के दर्शन किये किन्तु तपस्वी श्री सुन्दरलालजी महराज जैसी शान्ति कहों भी दृष्टिगोचर नहीं हुई । तपस्वीजी एक महान् सन्त है समाज के मूषण हैं। प्रायः तपस्वी लोगों की क्रोध के साथ मैत्री रहती है। बात-बात पर क्रोध करना उनका स्वभावसा बन जाता है किन्तु हमने देखा तपस्वीजी के पास क्रोध आने से भी डरता है । यहां प्रत्येक बात का बडी शान्ति के साथ उत्तर मिलता है । मुख पर ग्लानि का नाम निशान भी नहीं है । श्रीमहावीर प्रभु के चउदह हजार सन्तों में 'धन्ना मुनि' को तप और त्याग से ही विशिष्ट स्थान प्राप्त था । वैसे हि हमारे आज के मुनि समाज में तपस्वीजी भी अपना गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं ।" इस प्रकार जौहरीजी ने अपने प्रवचन में तपस्वीजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की । स्थानीय श्रावक संघ के धार्मिक उत्साह को देख दोनों सज्जन बड़े प्रभावित हुए । और श्रावक संघ की बड़ी प्रशंसा करने लगे । तपस्वीजी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने धोवन पानीके आधार से ८३ दिन की सुदीर्घ कठोर तपस्या की । तपस्या काल में आप सदा जागृत रहते थे । जरा-जरासो बात में भी अपने संयम का ध्यान रखते थे । विवेक से जहां चलते, विवेक से उठते, विवेक से बैठते, किं बहुना, अपना हर काम विवेक से करते थे । जहां तक हो सके आप कम से कम मुनियों से सेवा करवाते थे । प्रायः स्वाध्याय ध्यान में निमम रहना आपका कार्य बन गया था । तपस्या की समाप्ति के दिन स्थानीय श्रावकसंघ ने सर्वत्र इस दिन को सफल बनाने की सूचना पत्र पत्रिकाओं द्वारा बाहर भेजो । करीब दो हजार गांवों ने गुरुदेव द्वारा भेजे गये सन्देश का श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया ! सर्वत्र अगते फलवाये गये । उस दिन अपने अपने गांववालों ने यथाशक्ति त्याग प्रत्याख्यान किये । तपस्याएं की । सर्वत्र हजारों मूक प्राणियों को अभयदान मिला । दो हजार गांववालों ने तपस्वीजी के पूरके दिन निम्न पांच बातों का पालन किया २९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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